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महावाक्य क्या हैं ?

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निवृत्तिभाष्यम्

मह्यते पूज्यतेऽसौ इति महत्। तत्तु ब्रह्म। परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः। परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणमिति महाभारते। महतो महीयानिति श्रुतिः। महदर्थप्रकाशकं ब्रह्मबोधकं वाक्यं महावाक्यं यस्मिन् प्रणवान्तर्गतं परब्रह्म उपदिष्टम्। प्रधानस्त्वेकस्तारः। आम्नाये चत्वारि वाक्यानि। बृंहणे पञ्चविंशतिः। भूततन्मात्रेन्द्रियकरणानि चतुर्विंशतिसङ्ख्यकानि। सहात्मना पञ्चविंशतिः। तस्मादत्र तद्वद्व्याख्यास्यामः।

जिसका सम्मान होता है, जिसकी पूजा होती है, वह महान् है, वह ब्रह्म है। महाभारत में महान् तेज, महान् तप एवं महान् शरण वाले महान् परब्रह्म का वर्णन है। श्रुति कहती है कि वह महान् से भी महान् है। उस महान् के अर्थ का प्रकाशन करने वाला, ब्रह्मबोध कराने वाला वाक्य महावाक्य है जिसमें प्रणव के अन्तर्गत परब्रह्म का उपदेश किया गया है। इसमें प्रधान एक ही तार (ॐ) है। वेदों के सम्प्रदायानुसार चार वाक्य हैं। इनका विस्तार करने पर यह पच्चीस हो जाते हैं। भूत, तन्मात्रा, इन्द्रिय एवं करण को मिलाकर (तत्त्वों की) चौबीस संख्या होती है। आत्मा को जोड़ देने पर पच्चीस हो जाती है। अतएव यहाँ उसी प्रकार से व्याख्या करेंगे।

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प्रज्ञानं ब्रह्म ॥०१॥

निवृत्तिभाष्यम्
प्रज्ञानमिति चैतन्यम्। यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितं स्वभावत उत्पत्तिर्वा तच्चैतन्यम्। चैतन्यमिति आत्मा इति शिवसूत्रेषु। ज्ञानक्रिये पराशक्तेः स्पन्दनावत्र ज्ञानं बन्ध इति। अत्र ज्ञानपदेन लोकज्ञानं न तु ब्रह्मणः। प्रज्ञानं लोकोत्तरमिति। प्र इत्यारम्भः। प्र इति गतिः। जगतो निर्माणक्रियारम्भोपक्रमो वा यस्मादस्ति चान्ते यत्सर्वेषां परमा गतिस्तत्प्रज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानम्। प्रज्ञानं तु प्रकाशतेति षड्जगीतायाम्। तत्तु ब्रह्म। प्रज्ञानं ब्रह्मेति वा अहं ब्रह्मास्मीति वा भाष्यते बह्वृचोपनिषदि। प्रज्ञानं ब्रह्म इत्यात्मबोधोपनिषदि श्रुतिः।

प्रज्ञान का अर्थ चैतन्य है। जिसमें सब कुछ प्रतिष्ठित है अथवा जिससे सबों की स्वभावतः उत्पत्ति है, वह चैतन्य है। शिवसूत्रों में आत्मा को चैतन्य शब्द से कहा गया है। ज्ञान एवं क्रिया पराशक्ति के स्पन्दन हैं जिसमें ज्ञान बन्धन है। यहाँ ज्ञानपद से संसार का ज्ञान लक्षित है, ब्रह्म का नहीं। प्रज्ञान संसार से परे है, ऐसा है। प्र का अर्थ आरम्भ है। प्र का अर्थ गति है। संसार की निर्माणक्रिया, आरम्भ अथवा उपक्रम जिससे है तथा जो अन्त में सबकी गति है, इसका भली प्रकार से इससे बोध होता है, अतएव यह प्रज्ञान है। प्रकाशित करने की उपलब्धि प्रज्ञान है, ऐसा षड्जगीता में है। वह ब्रह्म है। प्रज्ञान ब्रह्म है अथवा मैं ब्रह्म हूँ, ऐसा बह्वृचोपनिषत् में कहा जाता है। प्रज्ञान ब्रह्म है, ऐसी आत्मबोधोपनिषत् में श्रुति है।

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अहं ब्रह्मास्मि ॥०२॥

निवृत्तिभाष्यम्
अहमिति पदेन परमेश्वरोऽर्थीभूतः। अकारस्तु शिवो विष्णुः पुरुषो वा। हकारेण तस्य शक्तिरुमा श्रीः प्रकृतिर्वा निगद्यते। संयोगात्तयोरानन्दो जायते। आनन्देन ब्रह्मानन्द इति। ब्रह्मपदेन सर्वरूपता लक्षिता। अहं ब्रह्म परं ज्योतिः स्थूलदेहविवर्जितम् । अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्जरामरणवर्जितमिति गरुडपुराणे ब्रह्मचिन्तनम्। अहं ब्रह्म चिदाकाशं नित्यं ब्रह्म निरञ्जनम् । शुद्धं बुद्धं सदामुक्तमनामकमरूपकमिति श्रुतिस्तेजोबिन्दूपनिषदि। नित्यशुद्धबन्धमुक्तसत्यमानन्दमद्वयम्। ब्रह्माहमस्म्यहं ब्रह्म परं ज्योतिर्विमुक्त ओमित्यग्निपुराणे ब्रह्मचिन्तनम्। तस्मादहं ब्रह्मास्मीत्यर्थमहं शक्तिमान्परमेश्वरोऽस्मीति भावयेत्।

‘अहम्’, इस पद से परमेश्वर का अर्थ ग्रहण किया गया है। अकार शिव, विष्णु अथवा पुरुष है। हकार से उसकी शक्ति उमा, लक्ष्मी अथवा प्रकृति कही जाती है। उन दोनों के संयोग से आनन्द उत्पन्न होता है। आनन्द शब्द से ब्रह्मानन्द समझना चाहिए। ब्रह्मपद से सर्वरूपता का भाव लक्षित है। गरुडपुराण में ब्रह्मचिन्तन है – ‘मैं स्थूल देह से परे परम ज्योतिरूप ब्रह्म हूँ। मैं बुढापे एवं मृत्यु से रहित परम ज्योतिरूप ब्रह्म हूँ।’ तेजोबिन्दूपनिषत् में श्रुति है – ‘मैं चिदाकाशमय, निरञ्जन, नित्य विद्यमान् रहने वाला ब्रह्म हूँ। मैं (मल एवं अज्ञान से रहित) शुद्ध-बुद्ध, सदैव मुक्त, नाम तथा रूप से रहित ब्रह्म हूँ।’ अग्निपुराण में ब्रह्मचिन्तन है – ‘मैं अविनाशी, शुद्ध, बन्धन से मुक्त, सत्य, आनन्दमय, अद्वितीय ब्रह्म हूँ। मैं परम ज्योतिरूप हूँ, सर्वथा मुक्त ब्रह्म हूँ। अतएव अहं ब्रह्मास्मि के अर्थ हेतु, मैं शक्तिमान् परमेश्वर हूँ, ऐसी भावना करे।

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तत्त्वमसि ॥०३॥

निवृत्तिभाष्यम्
तत्पदेन शक्त्यात्मकः परमेश्वरोऽनामरूपगुणलिङ्गविशिष्टो वर्ण्यते। तत्पदे क्लैव्यम्। त्वङ्कारस्तु पौरुषः। तयोर्न लिङ्गसाम्यता। तस्मादलिङ्गधर्मा शक्तियुक्तः परमेश्वरो लक्ष्यः। तद्ब्रह्म। त्वं जीवः। असीत्यभेदप्रबोधः। बोधको गुरुर्लब्धब्रह्मपदम्।
तत्त्वमसीत्येव सम्भाष्यते बह्वृचोपनिषदि हयग्रीवोपनिषदि च।

‘तत्’ पद से शक्त्यात्मक परमेश्वर, जो नाम, रूप, गुण एवं लिंग की विशिष्टता से रहित है, वह वर्णित होता है। ‘तत्’ पद नपुंसकलिंग में है। ‘त्वम्’ पद में पुंल्लिङ्ग है। दोनों में लिङ्ग की दृष्टि से साम्यता नहीं है। अतएव लिङ्गधर्म से परे शक्तियुक्त परमेश्वर को लक्ष्य समझना चाहिये। तत् पद ब्रह्म है, त्वम् पद जीव है। असि पद से अभेद का बोध होता है। यहाँ ब्रह्मपद को प्राप्त गुरु बोधक हैं। तत्त्वमसि महावाक्य बह्वृचोपनिषत् में कहा गया है और हयग्रीवोपनिषत् में भी वर्णन है।

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अयमात्मा ब्रह्म ॥०४॥

निवृत्तिभाष्यम्
अयमात्मा निर्लेपो निर्द्वन्द्वो निर्विकल्पस्त्रिगुणात्मकेन जगता नावरुद्धः परंब्रह्म वर्तते। अयमिति प्रत्यक्षानुभूयते लोकधर्मानुशीलेन। आत्मा इति जिज्ञासितव्यो देहव्यामोहविदूरीकरणात्। ब्रह्मेति परोक्षसाम्यम्। अयमात्मा परं ब्रह्म सत्यं ज्ञानमनन्तकमित्यग्निपुराणे। अयमात्मा परं ब्रह्म अहमस्मीति मुच्यत इति तत्रैव। अयमात्मा परं ज्योतिश्चिन्नामानन्दरूपक इति गरुडपुराणे। अयमात्मा ब्रह्मेति बह्वृचोपनिषदि, रामतापिन्युपनिषदि, शुकरहस्योपनिषदि, हयग्रीवोपनिषदि शतपथब्राह्मणे च। अयमात्मा हि ब्रह्मैव सर्वात्मकतया स्थितः। इति निर्धारितश्रुत्या बृहदारण्यसंस्थयेत्यपरोक्षानुभूतिकथने श्रीशङ्कराचार्यः।

यह आत्मा निर्लेप, निर्द्वन्द्व, निर्विकल्प, त्रिगुणात्मक संसार के द्वारा बाधित न होने वाला परब्रह्म है। ‘अयम्’ पद से संसार में क्रियाशील चेतन का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। देह के मोह को दूर करने पर ‘आत्मा’ की जिज्ञासा करनी चाहिए। ‘ब्रह्म’ पद से आत्मा से अभिन्न परोक्ष तत्त्व का भाव है। यह आत्मा सत्य, ज्ञानरूपी, अनन्त परब्रह्म है, ऐसा अग्निपुराण में है। वहीं कहते हैं कि यह आत्मा परब्रह्म है, जो कि मैं हूँ, इस प्रकार से मुक्त होता है। चिदानन्दसंज्ञक यह आत्मा परमज्योतिरूप है, ऐसा गरुडपुराण की उक्ति है। यह आत्मा ब्रह्म है, यह बात बह्वृचोपनिषत्, रामतापिन्युपनिषत्, शुकरहस्योपनिषत्, हयग्रीवोपनिषत् एवं शतपथब्राह्मण में वर्णित है। अपरोक्षानुभूति के कथन में श्रीशंकराचार्य जी कहते हैं कि बृहदारण्यक की श्रुति यह निर्धारित करती है कि यह आत्मा ब्रह्म ही है जो सर्वात्मभाव से सर्वत्र स्थित है।

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