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महावाक्य क्या हैं ?

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वेदशास्त्रगुरूणां तु स्वयमानन्दलक्षणम्॥२२॥

निवृत्तिभाष्यम्

धर्मब्रह्मप्रतिपादकमपौरुषेयवाक्यमिति वेदः। शिष्यतेऽनेन निर्देशं क्रियत इति शास्त्रम्। गुकारोऽन्धकारो रुकारश्च तस्य नाशक एवं गुरुस्तद्विधः। आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्त इति श्रुतिप्रसिद्धम्। स्थितिर्विनाशश्च। वेदशास्त्रगुरुयुक्तेन जनेनानन्दमुपलभ्यते स न तु शोकभाक्।वेदशास्त्रगुरुवाक्यनिमित्तेन हृदम्बुजपटले ज्ञानदीपः प्रबुद्ध्यति तदामृतत्त्वममश्नुते।

धर्म एवं ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाला अपौरुषेय वाक्य वेद है। जिसके द्वारा शासन किया जाये एवं निर्देश किया जाये, वह शास्त्र है। गुकार अन्धकार को कहते हैं, रुकार उसका नाशक है, इस प्रकार से गुरु वैसे लक्षण वाला है (अन्धकार का नाश करने वाला)। आनन्द से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, यह वेद में प्रसिद्ध है। स्थिति एवं विनाश भी इसी (आनन्द) से होते हैं। वेद, शास्त्र एवं गुरु से युक्त व्यक्ति के द्वारा आनन्द का उपभोग किया जाता है, वह शोक का भागी नहीं होता है। वेद, शास्त्र एवं गुरुवाक्य के निमित्त से हृदयकमल में ज्ञानरूपी दीपक का उद्बोधन करता है, तब अमृतत्त्व का उपभोग करता है।

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सर्वभूतस्थितं ब्रह्म तदेवाहं न संशयः ॥२३॥

निवृत्तिभाष्यम्

क्षराक्षरभेदेन भूतानि। क्षरमिति नश्वरः संसारः। अक्षरमिति चेतनात्मा। पञ्चभूतानि पञ्चतन्मात्राः दशेन्द्रियाणि मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि लोकभूतानि। तत्सर्वमहमिति भावयेत्। नास्त्यत्र सन्देहो वर्ततेऽखिलं ब्रह्म इति संहितासु। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठतीति श्रीमद्भगवद्गीतासु। वासुदेवः सर्वमिति च। एकैवाहं जगत्यत्रेति सप्तशतीवचनम्।

क्षर एवं अक्षर भेद से भूत विभाजित हैं। क्षर नश्वर संसार को कहते हैं। अक्षर का अर्थ चेतन आत्मा है। पांच महाभूत, पांच तन्मात्रा, दस इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, ये सब सांसारिक भूत हैं। वह सब कुछ मैं हूँ, ऐसी भावना करे। संहिताएं कहती हैं कि सब कुछ ब्रह्म है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं कि हे अर्जुन ! ईश्वर सभी प्राणियों के हृदयदेश में स्थित है। वहीं कहते हैं – सब कुछ वासुदेव हैं। सप्तशती में देवी कहती हैं – इस संसार में मैं अकेली हूँ।

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सर्वोऽहं विमुक्तोऽहम् ॥२४॥

निवृत्तिभाष्यम्
सर्वमित्यखिलम्। अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशादयः क्लेशसंज्ञकाः। पापपुण्यमिश्ररहितानि कर्माणि। भयघृणालज्जाजुगुप्साजात्यभिमानादयोऽष्टपाशाः। क्लेशकर्मविपाकाष्टपाशरहितो विमुक्तोऽहमिति भावयेत्।

‘सर्व’ का अर्थ अखिल (सबकुछ) है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश, ये क्लेश कहलाते हैं। पाप, पुण्य, पाप-पुण्य मिश्रित एवं पाप-पुण्य रहित, ये कर्म के प्रकार हैं। भय, घृणा, लज्जा, जात्यभिमान जुगुप्सा, आदि अष्टपाश हैं। क्लेश, कर्मविपाक एवं अष्टपाश से रहित मैं विमुक्त हूँ, ऐसी भावना करे।

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सर्वोऽहं सर्वात्मको संसारी यदभूतं यच्च भव्यं यद्वर्तमानं सर्वात्मकत्वादद्वितीयोऽहम् ॥२५॥

निवृत्तिभाष्यम्
संसारः परिवर्तनधर्मानुशीलनत्वादस्थिरोऽस्मिन् घटमृत्तिकापटतन्तुवदात्मतत्त्वं प्रतिष्ठितम्। यदतीतं यद्भविष्यं यद्भूयमानं तत्सर्वमहं त्रिकालेषु प्रतिष्ठितोऽस्म्यहं कालातीतोऽस्म्यहम्। नान्यदस्ति किञ्चित् तस्मादद्वितीय इति भावयेत्।

संसार परिवर्तन के लक्षण के अनुशीलन के कारण अस्थिर है, इसमें घड़े एवं मिट्टी, कपड़े एवं धागे के समान आत्मतत्त्व प्रतिष्ठित है। जो बीत चुका, जो होने वाला है, जो कुछ हो रहा है, वह सब कुछ मैं हूँ, तीनों कालों में प्रतिष्ठित हूँ, मैं कालातीत हूँ। मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, अतएव अद्वितीय हूँ, ऐसी भावना करे।

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पञ्चविंशतिवत्सरवयोऽहं निग्रहः पञ्चविंशतिमहावाक्यानां निवृत्तिभाष्यं लिलेख। स्वप्नकाले भगवता भास्करेणासावादित्यो ब्रह्मेति महावाक्यबोधनान्तरं तत्कृपया निवृत्तिभाष्यं रचयामास चान्ते पूर्वाचार्याणां निग्रहाणां प्रशस्तिः।

पच्चीस वर्ष की अवस्था में मुझ निग्रहाचार्य ने पच्चीस महावाक्यों पर निवृत्तिभाष्य का लेखन किया। स्वप्नकाल में भगवान् सूर्य के द्वारा ‘असावादित्यो ब्रह्म’, इस महावाक्य के बोधन के अनन्तर उनकी कृपा से निवृत्तिभाष्य की रचना की। अन्त में पूर्व के निग्रहाचार्यों की प्रशस्ति उल्लिखित है।

श्रीमच्छङ्करशेषवल्लभमधूच्छिष्टो महामोक्षदो
निम्बार्काभिनवादिशास्त्रनिपुणैराराधितस्सर्वदा।
रामानन्दसिताङ्गभक्तप्रवरैर्यो लोकसञ्चारितो
वेदान्तागमशास्त्रवाडवपतिः संरक्षको निग्रहः॥
श्रीमच्छैवदिवाकराच्युतपथे वैनायके श्रीकुले
श्रौतस्मार्तपुराणकौलभवने वर्णाश्रमे वर्णितम्।
आचार्यादिमहाजनाचरणसंदृश्ये सदालोकितम्
तच्छद्धर्मप्रसारणेऽग्रगतिमान् श्रीसद्गुरुर्निग्रहः॥

*-*-* इति शम् *-*-*