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महावाक्य क्या हैं ?

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तत्त्वस्य प्राणोऽहमस्मि पृथिव्याः प्राणोऽहमस्मि॥१०॥

अपां च प्राणोऽहमस्मि तेजसश्च प्राणोऽहमस्मि॥११॥

वायोश्च प्राणोऽहमस्मि आकाशस्य प्राणोऽहमस्मि॥१२॥

त्रिगुणस्य प्राणोऽहमस्मि॥१३॥

निवृत्तिभाष्यम्
चतुर्णामर्थः। भूततन्मात्रेन्द्रियकरणानां तत्त्वसंज्ञा। तानि प्राणये। मूलाधारस्याधिष्ठात्री पृथ्वी भवति गन्धतन्मात्राभिहिता। तां प्राणये। स्वाधिष्ठानस्याधिष्ठातार आपो भवन्ति रसतन्मात्राभिहिताः। ताः प्राणये। मणिपुरस्याधिष्ठातृ तेजो भवति रूपतन्मात्राभिहितम्। तत्प्राणये। अनाहतस्याधिष्ठाता वायुर्भवति स्पर्शतन्मात्राभिहितः। तं प्राणये। विशुद्धस्याधिष्ठाताकाशो भवति शब्दतन्मात्राभिहितः। तं प्राणये। सत्त्वरजस्तमांस्यादयानि त्रिगुणानि तानि प्राणये। अहमिति प्रत्यक्षानुभूतिजन्य आत्मा। तत्तु प्रज्ञानं। प्रज्ञानात्मा ब्रह्म।

अब चारों का अर्थ बताते हैं। पांच महाभूत, पांच तन्मात्रा, दसों इन्द्रियाँ एवं चार अन्तःकरण को तत्त्व कहते हैं। मैं उनमें प्राण का संचार करता हूँ। मूलाधार की स्वामिनी पृथ्वी होती है जो गन्ध तन्मात्रा से युक्त है, मैं उसमें प्राण का संचार करता हूँ। स्वाधिष्ठान के स्वामी जल हैं जो रस तन्मात्रा से युक्त हैं, मैं उनमें प्राण का संचार करता हूँ। मणिपुर के स्वामी अग्नि हैं जो रूप तन्मात्रा से युक्त हैं, मैं उनमें प्राण का संचार करता हूँ। अनाहत के स्वामी वायु हैं जो स्पर्श तन्मात्रा से युक्त हैं, मैं उनमें प्राण का संचार करता हूँ। विशुद्ध के स्वामी आकाश हैं जो शब्द तन्मात्रा से युक्त हैं, मैं उनमें प्राण का संचार करता हूँ। सत्त्व, रजस् एवं तमस्, ये तीन गुण हैं, मैं उनमें प्राण का संचार करता हूँ। ‘मैं’ का अर्थ प्रत्यक्ष अनुभूतिजन्य आत्मा है। वह आत्मा प्रज्ञान है। प्रज्ञानात्मा ब्रह्म होता है।

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योऽसौ सोऽहं हंसः सोऽहमस्मि ॥१४॥

निवृत्तिभाष्यम्
उच्छासनिश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत्। उच्छासे चैव निश्वासे हंस इत्यक्षरद्वयम्। तस्मात् प्राणस्तु हंसात्मा आत्माकारेण संस्थित इति दक्षिणामूर्तिसंहितायाम्। हंकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत् पुनः कथयति निरुत्तरतन्त्रम्। सोऽहमिति विपरीतहंसः। व्यञ्जनौ बहिष्कृत्य प्रणवो भवेदिति। प्रणवो ब्रह्म। हंसो निर्विकल्पोऽद्वितीयः। तत्परब्रह्म तदहम्।

दक्षिणामूर्ति संहिता कहती है कि श्वास लेने और छोड़ने से बन्धन का नाश होता है। (कैसे ?) श्वास लेने और छोड़ने में ‘हंस’, इन दोनों अक्षरों का प्रयोग होता है। अतएव प्राण हंसात्मा है और आत्माकार होकर स्थित रहता है। निरुत्तर तन्त्र कहता है, (विपर्ययमत से) हंकार से बाहर जाता है और सकार से पुनः प्रवेश करता है। यह सोऽहं विपरीत हंसमन्त्र है। इसमें दोनों व्यंजनों (स् एवं ह्) को हटा देने से प्रणव (ॐ) होता है। प्रणव ब्रह्म है। हंस निर्विकल्प एवं अद्वितीय है। वह परब्रह्म है, वह मैं हूँ।

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यदेह तदमुत्र तदन्विह ॥१५॥

निवृत्तिभाष्यम्
दिवि भूमावन्तरिक्षे पाताले लोके लोकातीते वा यः स्थितस्तं भावयेत्। सर्वतो ब्रह्म व्याप्तम्। यथा शुचौ तथाशुचौ। यथा विद्वत्सु तथा मूर्खेषु। यथा शैलशृंगे तथा सिन्धुगह्वरे। यथा वर्णाश्रमस्थितेषु तथा जातिबाह्येषु। सर्वतोभावेन व्याप्तं यथात्र नश्वरधर्मलोकेषु तथानश्वरधर्मपरमपद इत्यर्थः।

स्वर्ग में, भूमि में, अंतरिक्ष में, पाताल में, इस लोक तथा इस लोक से परे भी जो स्थित है, उसकी भावना करनी चाहिए। सर्वत्र ब्रह्म व्याप्त है। जैसे शुद्धि में है, वैसे ही अशुद्धि में भी है। जैसे विद्वानों में है, वैसे ही मूर्खों में भी है। जैसे पर्वतीय शिखरों में है, वैसे ही समुद्र की गहरायी में भी है। जैसे वर्णाश्रम में स्थित जनों में है, वैसे ही जातिबहिष्कृतों में भी है। सभी प्रकार से व्याप्त है। जैसे इस नश्वर लोक में है, वैसे ही अनश्वर परमपद में भी है, ऐसा अर्थ है।

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अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि ॥१६॥

निवृत्तिभाष्यम्
यो जानाति न स ब्रूते यो ब्रूते न स ज्ञानवान् यस्माद्ब्रह्म ज्ञानिभ्योऽज्ञानिभ्योऽपि नानुभूयते सहजत्वेन। भौतिकदेहेन विश्वावस्थायामन्नप्राणकोशाभ्यांशब्दस्पर्शरूपरसगन्धग्रहण सामर्थ्यत्वाज्जीवेन विषया अनुभूयन्ते। सूक्ष्मदेहेन मनोविज्ञानकोशाभ्यां तैजसावस्थायां सूक्ष्मविषयानश्नाति। तेनैव कारणदेहेनानन्दकोशमाश्रित्य प्राज्ञावस्थायां ब्रह्मानन्दमनुभूयते। ब्रह्म विदिदात्परोऽगोचरत्वादविदितात्परश्चापि। देहत्रयीमुक्तोऽव्यक्तावस्थायातुरीयायाममृतमश्नुते।

जो जानता है, वह बता नहीं सकता एवं जो बता रहा है, वह ज्ञानवान् नहीं है क्योंकि ब्रह्म ज्ञानियों एवं अज्ञानियों के द्वारा भी सहज ही नहीं जाना जा सकता है। भौतिकदेह से विश्वावस्था में अन्नमय एवं प्राणमय कोष के माध्यम से शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध को ग्रहण करने की क्षमता से जीव के द्वारा विषयों का उपभोग किया जाता है। सूक्ष्मदेह से तैजसावस्था में मनोमय एवं विज्ञानमय कोष के माध्यम से सूक्ष्म विषयों का उपभोग करता है। उस जीव के द्वारा ही प्राज्ञावस्था में कारणदेह से आनन्दमय कोष का आश्रय लेकर ब्रह्मानन्द की अनुभूति होती है। ब्रह्म ज्ञानियों से भी परे है और अज्ञानियों से भी परे है। तीनों देह से मुक्त होकर तुरीया अव्यक्तावस्था में जीव अमृतत्त्व का उपभोग करता है।

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