Home प्रकीर्ण हमारे जीवन में संस्कारों का महत्व

हमारे जीवन में संस्कारों का महत्व

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पौराणिक, वैदिक और शास्त्री एक ही है। इनमें कोई भेद नहीं क्योंकि धर्ममय वृक्ष के वेद मूल हैं, शास्त्र शाखा हैं, पुराण पत्ते हैं, काव्य और प्रकरण ग्रन्थ ही पुष्प हैं तथा अभ्युदय फल है तथा कल्याण ही उसका रस है। मूल के बिना वृक्ष का अस्तित्व नहीं। अतः रुद्रयामल तन्त्र, श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्मृतिग्रन्थ, भविष्य पुराण आदि में वेदों को स्वतः प्रमाण तथा अन्य को परतः प्रमाण की संज्ञा दी गयी है। वेदमूल धर्म की शाखा व्याकरण, निरुक्त आदि वेदांग शास्त्र हैं जो इसे समझने में सहायता करते हैं। पुराण वेदवाक्यों को अपनाने का सुपरिणाम और उल्लंघन के दुष्परिणाम के बार में दृष्टान्त देकर समझाते हैं, काव्य उनके प्रचार का प्रत्यक्षीकरण करते हैं।

अतः “अधीतिबोधाचरणप्रचारणै:” में क्रमशः वेद, शास्त्र, पुराण तथा काव्य का ही संकेत है। पुराण विरोधी आर्य समाजी जन वेदसमर्थन का दावा करने पर भी धर्मवृक्ष का छेदन करने वाले ही हैं क्योंकि शाखा पत्रादि के अभाव में मूल का पोषण नहीं हो पाता। बीज भी अपने विकास हेतु प्रथम पत्रादि का ही सृजन करता है। वेदनिंदक बौद्ध जैनादि पौराणिक पात्र तथा कथानकों का समर्थन करने पर भी धर्मवृक्ष का छेदन करने वाले ही हैं क्योंकि इस संसार में वेद से इतर कुछ भी नहीं। इस संसार में स्वतः प्रमाण वेद भगवान का समर्थन और प्रतिपादन न करने वाला वाक्य मान्य और प्रामाणिक नहीं। अतः एक सच्चा वैदिक वही है जो पुराण द्वेष न करे क्योंकि वेदों के पोषक पुराण ही हैं।एक सच्चा पौराणिक वही है जो वेद निंदा न करे क्योंकि वेद सभी तत्वों के मूल हैं। एष धर्मः सनातनः।

संस्कार शब्द का अर्थ है, शुद्धिकरण। जीवात्मा जब एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जन्म लेना है, तो उसके पूर्व जन्म के प्रभाव उसके साथ जाते हैं। इन प्रभावों का वाहक सूक्ष्म शरीर होता है, जो जीवात्मा के साथ एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में जाता है। इन प्रभावों में कुछ बुरे होते हैं और कुछ भले। बच्चा भले और बुरे प्रभावों को लेकर नए जीवन में प्रवेश करता है। संस्कारों का उद्देश्य है कि पूर्व जन्म के बुरे प्रभावों का धीरे- धीरे अंत हो जाए और अच्छे प्रभावों की उन्नति हो। संस्कार के दो रुप होते हैं – एक आंतरिक रुप और दूसरा बाह्य रुप। बाह्य रुप का नाम रीतिरिवाज है। यह आंतरिक रुप की रक्षा करता है। हमारा इस जीवन में प्रवेश करने का मुख्य प्रयोजन यह है कि पूर्व जन्म में जिस अवस्था तक हम आत्मिक उन्नति कर चुके हैं, इस जन्म में उससे अधिक उन्नति करें।

ये संस्कार इतने महत्वपूर्ण हैं कि स्वयं श्रीभगवान् भी अपने सगुण अवतारों में इनका पालन करते हैं | संस्कारों की शृंखला में सर्वाधिक संख्या और विधान ब्राह्मणों के लिए ही निर्धारित है | असंस्कृत ब्राह्मण पशुवत् हो जाता है, किन्तु संस्कारित ब्राहमण के सामने स्वयं भगवान् भी बहुत आदर एवं विनम्रता के साथ व्यवहार करते हैं| विद्वान् ब्राह्मण को चाहिए कि वह किसी को भी बिना प्रणाम किये आशीर्वाद न दे। हृदय में सभी प्राणियों के प्रति कल्याण की कामना अवश्य करे परंतु मुख से आशीर्वाद का वचन उच्चरित न करे। परंतु जब वह किसी राजा के सम्मुख जाए तो बिना उसके प्रणाम की प्रतीक्षा किये उसे पुष्कल वचनों से आशीर्वाद दे। ऐसे ही एक राजा का कर्तव्य है कि वह सभी प्राणियों के प्रति मन में आदर का भाव रखे पर प्रणाम किसी को न करे। परंतु जब वह किसी विद्वान् ब्राह्मण के सम्मुख जाए तो पूर्ण श्रद्धा से उसे प्रणाम करे। ब्राह्मोऽजातौ (- पा० ६/४/१७१) से जन्मना संकेत होता है |

एक विद्वान् ब्राह्मण को चाहिए कि जब वह त्रैलोक्य के महाराज श्री विष्णु के मन्दिर में जाय तो इसी नियम का पालन करते हुए प्रथम उन्हें प्रणाम न करके आशीर्वाद दे क्योंकि ब्रह्मण्यदेव श्रीहरि किसी विद्वान् ब्राह्मण को अपने सम्मुख देखकर अत्यंत प्रसन्नता से उन्हें प्रणाम करते हैं। विद्वान् ब्राह्मण को चाहिए कि प्रथम वह भगवान् को निम्न वचनों से आशीर्वाद दे :-

“योत्रावतीर्य शकलीकृतदैत्यकीर्तिर्योयं च भूसुर वरार्चित रम्यमूर्तिः।
तद्दर्शनात्सुकधियां कृततृप्तिपूर्तिः सीतापतिर्जयतु भूपतिचक्रवर्ती ॥”

कमलाकुचचूचुक कुंकुमतो, नियतारुणिताखिलनीलतनु:।
कमलायतलोचन लोकपते, विजयी भव वेंकटशैलपते ॥

अर्थात् जिन्होंने यहाँ अवतार लेकर दैत्यों की कीर्ति को धूल में मिला दिया, समस्त ब्राह्मण जिनकी सुंदर छवि की अर्चना करते हैं, इस सुंदर छवि के दर्शनों की इच्छा रखने वाले के हृदय को जो दर्शन देकर आह्लादित कर देते हैं ऐसे सीतापति श्रीराम चंद्र जी सदा विजयी हों। श्रीलक्ष्मी जी के स्तनों पर लगे हुए पराग और चंदन के द्वारा जिनका पूरा श्याम शरीर स्थान स्थान पर लालिमा से युक्त हो गया है, ऐसे वृषाचल निवासी समस्त संसार के महाराज कमलनयन श्री वेंकटेश भगवान को मैं विजय का आशीर्वाद प्रदान करता हूँ। इस प्रकार से आशीर्वाद देने के बाद भगवान को अत्यंत प्रसन्न होकर वरदान देने के लिए उत्सुक हुआ जानकार विद्वान् ब्राह्मण को चाहिए कि श्रीहरि से सांसारिक कामनाओं की पूर्ति की अभिलाषा को न मांगकर अपने आप को इस अत्यंत दुष्कर संसार सागर से मुक्त होने का वरदान मांगते हुए उन्हें सम्पूर्ण भाव और समर्पण के साथ प्रणाम करे :-

सचतुर्मुखषण्मुखपञ्चमुखप्रमुखाखिलदैवतमौलिमणे।
शरणागतवत्सल सारनिधे, परिपालय मां वृषशैलपते॥

जिनकी आराधना और चरणवंदन ब्रह्मा, कार्तिकेय और शंकर जी जैसे प्रमुख देवगण सदैव करते रहते हैं ऐसे हे शरणागत वत्सल भगवान वृषाचल निवासी वेंकटेश स्वामिन् !! आप सदैव मेरा संरक्षण और पालन करें। इस प्रकार से अपने सभी क्रियमाण, सञ्चित एवं प्रारब्ध कर्म को सम्पूर्ण रूप से भगवान् को समर्पित करके वह विद्वान् ब्राह्मण सभी संकटों से पार होकर श्रीनारायण के स्वरूप में मिल जाता है। अतएव, श्रुति, स्मृति, पुराणोक्त विधानों के अनुसार संस्कारित जीवन ही जीना चाहिये|

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru