Home प्रकीर्ण महावाक्य क्या हैं ?

महावाक्य क्या हैं ?

1253

श्रीमन्निग्रहाचार्यकृतं निवृत्तिभाष्यम्

मङ्गलाचरणम्

श्रीशङ्करं भवहरं कलिकल्मषारिं
योगीन्द्रवर्यमपराजितमद्वितीयम्।
सर्वज्ञपीठगतमानुविधित्समार्यं
नौमीड्यसर्वनिगमागमतत्त्वमूर्तिम् ॥०१॥

सांसारिक बन्धन का नाश करने वाले, कलियुग के दोषों के शत्रु, योगियों के स्वामियों में भी श्रेष्ठ, अपराजित एवं अद्वितीय, सर्वज्ञपीठ में आरूढ़, संसार का हित करने वाले आचारनिष्ठ, सभी वेद एवं तन्त्र के तात्त्विक स्वरूप श्रीशंकराचार्य को मैं स्तुतिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।

यत्पङ्कजाङ्घ्रिविभवेन महाष्टपाशा
नाक्रोशयन्ति मनुजं जठराग्निचक्रे।
नैवं पुनः प्रविशतीह वदान्यवर्यो
रामानुजो विजयते यतिराजराजः ॥०२॥

जिनके चरणकमलों के प्रताप से, महान् अष्टपाश मनुष्य को कष्ट नहीं देते और उसका पुनः माता के गर्भ में प्रवेश नहीं होता है, ऐसे उदारमना जनों में श्रेष्ठ, संन्यासियों के स्वामियों के भी स्वामी श्रीरामानुजाचार्य जी विजयी हो रहे हैं।

भक्त्यामास्थानुमितिकरणाद्वेदवेदान्तघोषैर् –
वर्णाश्रम्यान्निहितनियमान् बाह्यजातीश्च म्लेच्छान्।
रामारक्तान्मथितमनसो रामतत्त्वे निधाय
रामानन्दो रघुवरमती राजते पुण्यकीर्तिः ॥०३॥

भक्ति में आस्था को अनुगामिनी बनाकर, वेद-वेदान्त के घोष से वर्णाश्रम में स्थित जनों को, नियमों में लगे हुए जनों को, जाति से बहिष्कृत तथा म्लेच्छ जनों को, स्त्री आदि में आसक्त मथित चित्त वालों को भी रामतत्त्व में स्थित करके अपनी पुण्यरूपिणी कीर्ति वाले, रघुवर श्रीरामजी में अपनी मति रखने वाले श्रीरामानन्दाचार्य जी शोभायमान् हैं।

आदौ मर्कटरूपी पश्चादनिलांशो
याम्ये द्वैतप्रकटीकरणार्थं तिष्ये।
यो भूत्वा हरिधर्मे लोके विरराज
मध्वाचार्यं श्रीगुरुमूर्तिं प्रणतोऽस्मि ॥०४॥

पहले वानर (हनुमान्) के रूप से, बाद में वायु के अंश (भीमसेन) बन कर और कलियुग में द्वैतमार्ग को प्रकट करने के लिये जो दक्षिण में उत्पन्न होकर विष्णुमार्ग में सुशोभित हुए, ऐसे गुरुरूपी श्रीमध्वाचार्य जी के प्रति मैं विनत हूँ।

द्वैताद्वैतोपदेष्टारं विष्णुचक्रावतारिणम्।
वन्दे तं निम्बमार्तण्डं द्वितीयमिव भास्करम् ॥०५॥
योऽनन्यतां समादाय शुद्धाद्वैतमबोधयत्।
नौमि तं वैष्णवाचार्यं वल्लभं हरिवल्लभम् ॥०६॥

द्वैताद्वैत के उपदेष्टा, भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार श्रीनिम्बार्काचार्य जी की मैं वन्दना करता हूँ जो दूसरे सूर्य के समान हैं। जिन्होंने अनन्यता को प्राप्त करके शुद्धाद्वैत का प्रबोधन किया, उन वैष्णवाचार्य श्रीवल्लभाचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ जो श्रीहरि के प्रिय हैं (अथवा जिन्हें श्रीहरि प्रिय हैं)।

उदितरविप्रभावन्निग्रहा ये च पूर्वे
जगति दिवि जयेयू राधका धर्मवृत्तेः।
नदनुकपटशास्त्रायावका ये महान्तः
प्रकटितमतिशास्त्रानग्रजान्नौमि नित्यम्॥०७॥

उगे हुए सूर्य के समान प्रभा वाले जो निग्रहाचार्य पूर्व में हो चुके हैं, धर्मवृत्ति की संसिद्धि करने वाले वे इस संसार और स्वर्ग में जयशाली हों। बादलरूपी कपटशास्त्रों के लिये जो महानुभाव वायु के तुल्य हैं, जिन्होंने शास्त्र एवं स्वमति को प्रकट किया है, ऐसे मेरे पूर्वाचार्यों को मैं प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ।