Home प्रश्न समाधान चोर गणपति क्या हैं ? इनकी साधना की क्या विधि है ?

चोर गणपति क्या हैं ? इनकी साधना की क्या विधि है ?

चौरगणपतिसाधनरहस्यम्

प्रश्नकर्ता – चौरगणपति क्या होते हैं ? तन्त्रशास्त्र में इनका क्या महत्त्व है ?

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – भगवान् गणपति के नीलगणपति, उच्छिष्ट गणपति, क्षिप्रवरदगणपति, श्वेतार्कगणपति, हरिद्रागणपति, चौरगणपति आदि अनेकों स्वरूप शास्त्रों में वर्णित हैं। ईर्ष्या से युक्त चित्त वाले तान्त्रिक, देवता अथवा ऐसी ही शक्तियों के द्वारा साधकों के पुण्य और तपोबल का हरण करने अथवा उससे रक्षा की विधि चौरगणपति के अनुशासन में आती है। प्रधानता से चौरकर्म आदि के लिए ऐसे तान्त्रिक वृश्चिक लग्न का समय उपयुक्त समझते हैं, जैसा कि देवर्षि नारद अपनी संहिता में कहते हैं –

स्थिरकर्माखिलं कार्यं राजसेवाभिषेचनम्।
चौर्यकर्म स्थिरारम्भाः कर्तव्या वृश्चिकोदये॥

समस्त कार्यों के प्रारम्भ में विघ्ननाश हेतु भगवान् गणपति का पूजन करना चाहिए। शिवपुराण की विश्वेश्वरसंहिता, अध्याय – १८ में कहते हैं –

निर्विघ्नेन कृतं साङ्गं कर्म वै सफलं भवेत्।
तस्मात्सकलकर्मादौ विघ्नेशं पूजयेद्बुधः॥

स्कन्दपुराण, माहेश्वर – केदारखण्ड, अध्याय – १० का भी ऐसा ही मत है –

लोका भस्मीकृता येन तस्माद्येनापि रक्षिताः।
तस्यार्च्चनाविधिः कार्यो गणेशस्य महात्मनः॥
कर्मारम्भे तु विघ्नेशं ये नार्चन्ति गणाधिपम्।
कार्यसिद्धिर्न तेषां वै भवेत्तु भवतां यथा॥

समुद्रमन्थन से पूर्व गणपतिपूजन न करना, सतीशिवविवाह से पूर्व गणपतिपूजन न करना ही उक्त प्रसङ्गों में विघ्न और विनाश का कारक है, ऐसा स्कन्दपुराण के केदारखण्ड, मानसखण्ड आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है। शरीर के ग्यारह स्थानों में पचास गणदेवता रहते हैं जो साधक के पुण्य का हरण करते हैं।

चक्षुर्द्वयं तथा कर्णद्वयं नासापुटद्वयम्।
मुखं नाभिं लिङ्गमूलं गुदस्थानं तथैव च॥
मनोद्वारं भ्रुवोर्मध्ये दशैका द्वारसञ्ज्ञिताः।
अङ्कुशं प्रथमं बीजं हृदये दशधा जपेत्॥
प्रजपान्ते ततो मातः कवाटं (कपाटं) निक्षिपेत्ततः।
कर्णयोश्च तथा कूर्चं कालीं नासापुटे ततः॥
मुखे स्त्रीं द्विविधं बीजं नाभौ वाणीं ततो जपेत्।
ह्सौः बीजं लिङ्गमूले वं गुदे परिकीर्त्तितम्॥
ओङ्कारञ्च भ्रुवोर्मध्ये मनःस्थाने तथैव च।
एतदेकादशं बीजं प्रतिद्वारे कपाटवत्॥
अधुनाहं प्रवक्ष्यामि चोरमन्त्रमतः शृणु।
चोरमन्त्रपरिज्ञानं विना हे ब्राह्मणेश्वरि॥
पुराणं प्रपठेद्यस्तु स एव मूर्तिमान् कलिः।
परजन्मनि पापिष्ठः स भवेच्चौरकुक्कुरः॥
शिवपूजा विष्णुपूजा शक्तिपूजा तथैव च।
सर्वपूजासु यत्तेजो हरते गणपः स्वयम्॥
पञ्चाशद्गणदेवानां ज्योतींषि मुनिपुङ्गवाः।
प्रतिद्वारपथे गत्वा प्रतिपद्मेषु जृम्भते॥
हरन्ति जपतेजांसि प्रतिपद्मेषु संस्थिताः।
जपपूजासु यत्तेजस्तत्र चौरो गणाधिपः॥
तस्माच्चौरप्ररोधार्थं चौरमन्त्रं जपेद्दश।
ततस्तु पूजयेद्धीमान् यस्य या इष्टदेवताः॥
ततः फलमवाप्नोति ब्रह्मादित्रिदिवौकसः।
चौरमन्त्रं महामन्त्रं पञ्चाशद्गणतोषणम्॥
चौरमन्त्रं विना भद्रे शान्तिस्वस्त्ययनं कुतः॥
(वर्णविलासतन्त्र)

दोनों नेत्र, दोनों कान, दोनों नासाच्छिद्र, मुख, नाभि, लिङ्गमूल, गुदा एवं दोनों भौंह के मध्य का मनोद्वार, इन ग्यारह स्थानों को द्वार कहते हैं। पहले अङ्कुश बीज (क्रों) को हृदय में दस बार जप कर न्यास करे। उसके बाद सभी द्वार के कपाटों को सुरक्षित करना प्रारम्भ करे। दोनों कानों में कूर्च बीज (हूं), नासिका के दोनों छिद्रों में कालीबीज (क्रीं), मुख में ‘स्त्रीं’, नाभि में वाग्बीज (ऐं), लिङ्गमूल में ‘ह्सौ:’, गुदा में ‘वं’ तथा भृकुटि के मध्य मनःस्थान में ओङ्कार का जप करे। इस प्रकार प्रत्येक द्वार में (दस दस बार) ये बीज कपाट के समान लग जाते हैं। अब मैं चोरमन्त्र बताता हूँ, सुनो। चोरमन्त्र के ज्ञान के बिना जो पुराणादि पढ़ता है, वह साक्षात् कलियुग ही है। दूसरे जन्म में पापी बनकर चोर अथवा कुत्ता बनता है। शिवपूजा, विष्णुपूजा अथवा उसी प्रकार शक्तिपूजा आदि सभी पूजाओं का जो तेज है उसे गणपति स्वयं हरण करते हैं। प्रत्येक द्वार के पद्मों में पचास गणदेवताओं के साथ जाकर जप के तेज का हरण करते हैं। जप, पूजा में जो तेज है, उसके चोर गणपति हैं। इसीलिए चोरों को रोकने के लिए चोरमन्त्र का दस बार जप करना चाहिए। उसके बाद बुद्धिमान् व्यक्ति, उसके जो भी इष्टदेव हों, उनका पूजन करे। इससे ब्रह्मादि देवताओं का फल प्राप्त करता है। चौरमन्त्र महामन्त्र है, इससे पचास गणों की सन्तुष्टि होती है। चौरमन्त्र के बिना शान्ति और स्वस्त्ययन कैसे हो सकता है ?

यहाँ ध्यातव्य है कि भृकुटि के मध्य मनःस्थान में जिस ओङ्कार का जप और न्यास करना है, उसमें अपतित द्विजाति का ही अधिकार है। व्रात्य, पतित द्विज, वर्णसंकर, स्त्री, शूद्र आदि के लिए शूद्रसेतु ही प्रणव है।

चतुर्दशस्वरो योऽसौ शेष औकारसञ्ज्ञकः।
स चानुस्वारचन्द्राभ्यां शूद्राणां सेतुरुच्यते॥
अथवा
चतुर्दशस्वरो योऽसौ सेतुरौकारसञ्ज्ञकः।
स चानुस्वारनादाभ्यां शूद्राणां सेतुरुच्यते॥
(कालिकापुराण)

मन्त्रस्तथैव प्रणवो द्विजानां सेतुरुच्यते।
शूद्राणां चन्द्रबिन्दुस्थ औकारः सेतुरुच्यते॥
(कौलावली)

चतुर्दशस्वरो देवि पुण्यसिद्धिप्रदायकः।
नादबिन्दुसमोपेतो दीर्घप्रणव उच्यते॥
तन्त्रोक्तः प्रणवः सोऽपि स्त्रीशूद्राणां प्रशस्यते।
तस्मात्स्त्रीणाञ्च शूद्राणां स एव परिकीर्तितः॥
(यामलतन्त्र)

श्रीविष्णुकोटिमन्त्रेषु कोटिमन्त्रे शिवस्य च।
शूद्राणामधिकारोऽस्ति स्वाहाप्रणववर्जिते॥
(मुण्डमालातन्त्र)

शिव और विष्णु जी के ऐसे मन्त्र, जिसमें ॐ तथा स्वाहा न हों, वे शूद्रों के द्वारा ग्राह्य हैं।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को वेदोक्त मूल प्रणव (ॐ), जिसमें साढ़े तीन मात्रा होती है उसका उच्चारण करना चाहिए किंतु स्त्री और शूद्रों को बिन्दु एवं चौदहवें स्वर से युक्त दीर्घप्रणव (औं) जिसमें ढाई मात्रा होती है, उसका उच्चारण करना चाहिए।

स्वाहाप्रणवसंयुक्तं शूद्रे मन्त्रं ददद्द्विज:।
शूद्रो निरयगामी स्याद्ब्राह्मणो यात्यधोगतिम्॥
(देवीयामलतन्त्र)

जो ब्राह्मण शूद्र को स्वाहा एवं (वैदिक) प्रणव से युक्त मन्त्र देता है, वह मन्त्रग्राही शूद्र नरक जाता है और ब्राह्मण भी अधोगति को प्राप्त होता है।

तन्त्रोक्तं प्रणवं देवि वह्निजायां च सुन्दरि।
प्रजपेत्सततं शूद्रो नात्र कार्या विचारणा॥
(भूतशुद्धितन्त्र)

वह्निजायास्थले मायां दत्वा शूद्रो जपेद्यदि।
(शाक्तानन्दतरङ्गिणी)

वेदोक्त वह्निजाया (स्वाहा) और वेदोक्त प्रणव (ॐ) के स्थान पर तन्त्रोक्त वह्निजाया / माया (ह्रीं) तथा तथा तन्त्रोक्त प्रणव (औं) का प्रयोग करके शूद्रों को मन्त्र देना चाहिए। यही नियम पतित द्विजाति एवं स्त्रियों के लिए भी मान्य है।

ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरभाग के अनुसार इन भगवान् विघ्नेश्वर के अधीन रहने वाले पचास गणों के नाम इस प्रकार हैं (विघ्नेश को मिलाकर कुल इक्यावन) –

विघ्नेशो विघ्नराजश्च विनायकशिवोत्तमौ।
विघ्नकृद्विघ्नहन्ता च विघ्नराड्गणनायकः॥
एकदन्तो द्विदन्तश्च गजवक्त्रो निरञ्जनः।
कपर्दवान्दीर्घमुखः शङ्कुकर्णो वृषध्वजः॥
गणनाथो गजेन्द्रास्यः शूर्पकर्णस्त्रिलोचनः।
लम्बोदरो महानादश्चतुर्मूर्तिः सदाशिवः॥
आमोदो दुर्मदश्चैव सुमुखश्च प्रमोदकः।
एकपादो द्विपादश्च शूरो वीरश्च षण्मुखः॥
वरदो वामदेवश्च वक्रतुण्डो द्विदन्तकः (द्विरण्डकः)।
सेनानीर्ग्रामणीर्मत्तो मत्तमूषकवाहनः (विमत्तो मत्तवाहनः)॥
जटी मुण्डी तथा खड्गी वरेण्यो वृषकेतनः।
भक्ष्यप्रियो गणेशश्च मेघनादो गणेश्वरः॥

साधकों के पुण्य का हरण इन्द्र करते हैं, अतः आसन के नीचे जल देकर तिलक लगाने की परम्परा प्रसिद्ध ही है। इन्द्रदत्ता माला को धारण करके इन्द्रपुत्र वालि के द्वारा प्रतिपक्षी के तेज का हरण करने की बात भी लोकमान्य है। महाराज पृथु, सगर आदि के यज्ञपशु अश्व का इन्द्र के द्वारा हरण भी शास्त्रों में वर्णित है। अधुना भी तन्त्रविद्या के विशेषज्ञों के द्वारा ईर्ष्यावश अन्य साधकों के दुर्लभ उपस्कर, यन्त्र, मन्त्रबल आदि का हरण देखा जाता है। अतः भगवान् गणपति ने स्वयं ही चौरमन्त्रादि का प्रयोग उपदिष्ट किया है।

कर्णद्वयं तथा चक्षुर्द्वयं नासा मुखं ततः।
नाभिस्थाने लिङ्गमूले गुदस्थाने तथैव च॥
मनोद्वारं भ्रुवोर्मध्यं दशैकं द्वारमीरितम्।
प्रतिद्वारे न्यसेन्मन्त्रं चौराख्यं ब्राह्मणेश्वरि॥
चौरमन्त्रञ्चाह भद्रे प्रतिद्वारे कपाटवत्।
रहस्यं ते प्रवक्ष्यामि पञ्चाशद्गणतोषणम्॥
अङ्कुशं पञ्चमं बीजं प्रथमे दशधा जपेत्।
प्रजप्य सुभगे मातः कपाटं निःक्षिपेत्ततः॥
अन्यथा अङ्कुशैर्बीजैः कपाटं भेदिरे गणाः।
चन्द्रिकान्तर्गतानित्यं शङ्करं वरसुन्दरम्॥
चन्द्रिकासु समालीनः शिञ्जिनी अणिमा गुणः।
चन्द्रबिन्द्वात्मिका नित्या गणेशपरिपूजिता॥
ह्रीं ह्रीं बीजद्वयमिति विन्यसेन्नयनद्वये।
कर्णयोश्च तथा ह्रीं ह्रीं हुँ हुँ नासाद्वये तथा॥
मुखे स्त्रीं द्विविधं बीजं नाभौ क्लीं सुभगेश्वरि।
हसौ बीजं लिङ्गमूले गुदे वं परिकीर्तितम्॥
हुङ्कारञ्च भ्रुवोर्मध्ये मनःस्थाने तथैव च।
एतदकादशद्वारे चौरमन्त्राणि विन्यसेत्॥
दशधा चौरमन्त्रञ्च एकधा वापि बीजकम्।
अनेनैव जपेनापि प्रतिद्वारे कपाटकम्॥
(गणेशविमर्शिनी)

गणेशविमर्शिनी के अनुसार न्यासविधान में आंशिक भेद है और यह अधिक प्रचलित भी है। द्वारों की संख्या एवं स्थान तो पूर्ववत् ही होते हैं किन्तु प्रयोग विधि में थोड़ा भेद है। इसमें पहले हृदय में अङ्कुश बीज (क्रों) को दस बार जपना है और साथ ही पञ्चम बीज को भी जपना है। पञ्चम बीज का अर्थ क्या हो, इसमें सम्प्रदायभेद से मतभेद है किन्तु ‘सप्रणवं सर्वं पञ्चमं भवति’ इस श्रुति से ओङ्कार का ग्रहण किया जा सकता है, जिसका प्रयोगविवेचन पूर्व में कर चुके हैं। शेष द्वारों के निमित्त कहते हैं – दोनों नेत्रों में ‘ह्रीं – ह्रीं’, दोनों कर्ण में भी ‘ह्रीं – ह्रीं’, दोनों नासाच्छिद्रों में ‘हुँ – हुँ’, मुख में ‘स्त्रीं’, नाभि में ‘क्लीं’, लिङ्गमूल में हसौः (मतान्तर से ह्सौः या ह्सौं), गुदा में ‘वं’ तथा भौंह के मध्य मनःस्थान में ‘हुं’, ऐसे ग्यारह स्थानों में प्रत्येक बीज को दस अथवा (सिद्ध साधक हो तथा समयाभाव हो तो) एक बार जप करने से प्रत्येक द्वार में कपाट लग जाता है।

अब इसका प्रयोग कब करना है ? सामान्यतः साधनाओं में प्रवृत्त होने के बाद आचमन, पवित्रीकरण, आसनशुद्धि, दिग्बन्धन, सङ्कल्पादि के अनन्तर भूतशुद्धि (अथवा जैसी जिसकी परम्परा हो), आदि करके चौरगणपति के मन्त्र से न्यास कर सकते हैं और जो नियमित साधक हैं, उनके लिए कहते हैं –

शृणु चापि प्रवक्ष्यामि मन्त्रस्य जपनिर्णयम्।
प्रातःकाले च शय्यायां मुक्तस्वापः स्वदेहके॥
पूर्ववन्मातृकान्यासं विन्यसेन्मातृकास्थले।
तथा एकादशद्वारे चौरमन्त्राणि विन्यसेत्॥
दशधा चौरमन्त्रञ्च एकधा वापि सञ्जपेत्।
चौरमन्त्रजपात्तुष्टिर्गणेशस्य तदा भवेत्॥
यमस्य नाधिकारोऽपि चौरमन्त्रजपात्प्रिये।
सर्वमन्त्रजपात्तेजः सर्वस्मात्समुपस्थितम्॥
तत्तेजोहरणे शक्तिर्गणेशस्य न चैव हि॥
(गणेशविमर्शिनी)

प्रातःकाल शय्या में ही सोकर उठने के बाद (चूंकि अजपागायत्री आदि का विधान जगते ही प्रारम्भ हो जाता है), यथास्थान अपनी परम्परा के अनुसार मातृकान्यास आदि करके उक्त एकादश स्थानों में चौरमन्त्रोक्त सम्बन्धित बीजों का दस अथवा (सिद्ध साधक हो तो) एक बार जप करे। चौरमन्त्र से भगवान् गणेश की सन्तुष्टि हो जाती है, फिर चौरमन्त्र जप के बाद यमराज का भी अधिकार नहीं रह जाता है। सभी मन्त्रों के जप का तेज सम्पूर्ण रूप से समुपलब्ध होता है, जिसका हरण करने की शक्ति गणेश्वर में भी नहीं है।

शास्त्रों में चोरों के स्वामी परमेश्वर हेतु भी अभिनन्दन की उक्तियों का बाहुल्य है। यथा यजुर्वेदोक्त शतरुद्रीय में ‘तस्कराणां पतये नमः” अथवा शिवरहस्य के तृतीय अंश, पूर्वार्द्ध के दशम अध्याय में ‘तस्कराणाञ्च पतये‘ आदि उल्लेखनीय हैं। सूतसंहिता के मुक्तिकाण्ड में कहते हैं – ‘तस्कराणां नमस्तुभ्यं पतये पापहारिणे‘। साथ ही कहते हैं,

पतये तस्कराणां ते वनानां पतये नमः।
गणानां पतये तुभ्यं विश्वरूपाय साक्षिणे॥
(स्कन्दपुराण, ब्रह्मखण्ड – सेतुखण्ड, अध्याय – ४९, श्लोक – १८)

भगवान् द्वारदेवताधिपति विघ्नेश्वर गणपति का ध्यान तन्त्रशास्त्रों में निम्न प्रकार से बताया गया है –

अथ वक्ष्ये द्वारदेवध्यानं तन्त्रेषु गोपितम्।
देवद्वारं द्वारदेवाः स्वयमुच्चाटयन्ति ये॥
पाशाङ्कुशफलाम्भोजपाणिं पातालतुण्डिलम्।
वीरं विघ्नेश्वरं वन्दे गजवक्त्रं त्रिलोचनम्॥
(हाहारावतन्त्र)

मात्र भगवान् गणपति में अनुराग रखने वालों के लिए ही नहीं, अपितु यह विधान शैव, वैष्णव, शाक्त तथा अन्य समस्त इष्टों से सम्बन्धित जनों के लिए व्यवहार्य एवं उपयोगी है अतः स्वाधिकारानुसार साधकों की प्रवृत्ति इसमें होनी चाहिए। स्वाचार्यानुशासन से लोकहितार्थ हमने इसे सार्वजनिक किया है।

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
Nigrahacharya Shri Bhagavatananda Guru