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About His Holiness Nigrahacharya Shri Bhagavatananda Guru
Religious Tycoon, Freelance Speaker, Author, Philanthropist
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इस जालस्थल के विषय में
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु के विषय में
धर्माधिकारी, लोकोपकारी, ग्रन्थकार एवं स्वतन्त्र व्याख्याता
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पूज्यपाद निग्रहाचार्य जी का सिद्धान्तप्रिय सनातनियों ! सनातन धर्म का कलेवर अत्यन्त विशाल है | प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह जिस भी देश, काल, स्थिति, वर्ण, समुदाय, भाषा अथवा प्रज्ञा से युक्त हो, सनातन धर्म की किसी न किसी परम्परा के अन्तर्गत सम्मिलित होकर अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है | प्राचीनकाल में वेद, वेदांग, तन्त्र, पुराण, शास्त्र, स्मृति, दर्शन, सूत्र, नीति, इतिहास, काव्य, भाष्य, टीका एवं तत्समर्थक ग्रन्थों के माध्यम से मानवीय समुदाय लौकिक एवं पारलौकिक श्रेयस् का उपभोग करता था किन्तु कालक्रम से शास्त्रीय परम्परा के उन्मूलन एवं उसमें अशास्त्रीय मतों का प्रतिपादन करने वाले पाखण्डी धर्माभासी गुरुओं के मिश्रित हो जाने से धर्म एवं सदाचार का सर्वलोकोपकारी प्रारूप विकृत होने लगा है | पूर्वकाल में गुरुजन स्वार्थ, लोभ, भय आदि द्वंद्वों से सहज ही मुक्त रहकर अपने शिष्यों के लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर मार्ग का उपदेश करते हुए अपने आचरण के माध्यम से उनका हित-साधन करते थे, किन्तु आज के कथित गुरु शास्त्राचरण, शास्त्रज्ञान, शास्त्रोपदेश एवं शास्त्रनिष्ठा से सर्वथा दूर रहते हुए मात्र स्ववित्तसंग्रह एवं उदरपोषण में लगे रहते हैं जिसके कारण प्रतिफल में ऐसे गुरु और शिष्य, दोनों का पतन हो जाता है |ब्रह्म की पांच शक्तियों (उद्भव, स्थिति, संहार, अनुग्रह एवं निग्रह) के प्रकाशन के लिए निर्गुण ब्रह्म सगुण-भावापन्न होकर हिरण्यगर्भ (सूर्य अथवा ब्रह्मा), विष्णु, शिव, गणेश एवं दुर्गा का रूप धारण करते हैं | ब्रह्म की निग्रह शक्ति में शेष चारों शक्तियों का लोप हो जाता है | पूर्वकाल में सनातन धर्म की जितनी भी वैदिक, पौराणिक, स्मार्त, तान्त्रिक अथवा कतिपय अवैदिक शाखाएं भी थीं, उनके संयमन के लिए ‘निग्रह’संज्ञा से युक्त एक अनुशासनात्मक सम्प्रदाय का भी विधान था जिसके अन्तर्गत सौ तन्त्र एवं दो सौ उपतन्त्र निहित थे | उसी निग्रह शक्ति से सम्बद्ध पूर्वकाल में निग्रह सम्प्रदाय प्रचलित था जो निग्रहागम के सिद्धान्तों पर चलता था | परन्तु दुर्भाग्यवश वह अनुपम सम्प्रदाय और उसके निग्रहागम ग्रन्थ भी अधिकतर भारतीय गूढ ज्ञानों की तरह लुप्तप्राय हो गये, अधुना उक्त निग्रह सम्प्रदाय की कोई अलग से स्वतन्त्र मान्यता या विशिष्ट परम्परा प्राप्त नहीं होती है निग्रह सम्प्रदाय का कार्य केवल इतना है कि शेष सभी वैष्णव, शैव, शाक्त, कौल, गाणपत्य आदि अपने अपने सम्प्रदाय के सिद्धांतों एवं आचारों का संकरहीन अनुपालन करें, अर्थात् इसका काम केवल इतना है कि जहां कोई भी धर्मविरुद्ध जा रहा हो, उसे क्षमतानुसार उसके ही अपने सम्प्रदाय के लिये उक्त आचार के अनुसार मर्यादित करना | निग्रह सम्प्रदाय कोई नवीन स्वयम्भू नहीं अपितु प्राचीन और मान्य वैदिक सम्प्रदाय है इसका सांकेतिक वर्णन “शक्तिसङ्गमतन्त्र” नामक ग्रन्थ में मिलता है, इसके अधिकारियों के लिए कुछ विशिष्ट निग्रह प्रयोगों का वर्णन “पक्षिराजतन्त्र” आदि में मिलता है | निग्रह सम्प्रदाय के प्रधान देवताओं में शरभेश्वर, हनुमान्, क्रोधभैरव, स्कन्द, दुर्गा, नारायण आदि हैं | निग्रहो निग्रहाणाम् इस स्कन्द पुराण के वाक्य से निग्रह के रूप में स्कन्द एवं सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय इस श्रीमद्भागवत के वाक्य से नारायण का संकेत होता है | पूज्यपाद आदिशंकराचार्य जी ने भी अपने तान्त्रिक कृतियों में निग्रह प्रयोगों का सङ्केत किया है | अब इसका स्वतन्त्र प्रारूप दृश्य नहीं होता | श्रीशक्तिसङ्गममहातन्त्रराज के अनुसार –
निग्रहागमतन्त्राणि शतद्विशतभेदतः | अयमागमपर्यायः सिद्धरूपः प्रकाशितः || (श्रीशक्तिसङ्गममहातन्त्रराज, छिन्नमस्ताखण्ड, सप्तम पटल, श्लोक – ११६)
निग्रहागम के तन्त्रों की संख्या सौ है और दो सौ उपतन्त्र हैं | यह सिद्धरूप आगमवर्णन प्रकाशित किया गया है | जैसे वैष्णवागम से वैष्णव सम्प्रदाय, शैवागम से शैव, अघोरागम से अघोर एवं शाक्तागम से शाक्त सम्प्रदाय संचालित होते हैं, उसी प्रकार से निग्रहागमों से निग्रह सम्प्रदाय संचालित होता है |“सर्वं प्रलये निगृह्णातीति निग्रहस्तस्यागमो निग्रहागमस्तस्याचार्यो निग्रहाचार्य इति शब्दशक्तिः”
अर्थात् प्रलयकाल में समग्र जगत् का निग्रह करने वाली शक्ति निग्रह शक्ति है, उसका आगम निग्रहागम है और उसके आचार्य निग्रहाचार्य होते हैं, ऐसी इस शब्द की शक्ति (अर्थ) है | भारतीय ज्ञानधारा में आगमों की परम्परा और उसके पर्यायों की समृद्धि अद्वितीय है | चीनागम, बौद्धागम, जैनागम, पाशुपतागम, कापालिकागम, सूर्यागम, पाञ्चरात्रागम, अघोरागम, मञ्जुघोषागम, भैरवागम, बटुकागम, सञ्जीवन्यागम, सिद्धेश्वरागम, नीलवीरागम, मृत्युञ्जयागम, मायाविहारागम, विश्वरूपागम, योगरूपागम, विरूपागम, यक्षिण्यागम और निग्रहागम, ये सभी गोपनीय सम्प्रदायों के आगमपर्याय हैं जिनमें एक एक पर्याय में कई कई तन्त्र एवं उपतन्त्र हैं | इनमें कुछ वेदसम्मत हैं तो कुछ अवैदिक भी हैं |इनमें से निग्रहागम ही निग्रह सम्प्रदाय का संविधान है जिसके बाद सम्प्रदायावसान हो जाता है और अन्य प्रभेद शेष नहीं रहते हैं | निग्रहागम परमाक्षर की आराधना करते हैं जिस कारण से निग्रहागम की मान्यता वेदसम्मत है और इसमें प्राधान्यतः बहुधा समयाचार – सात्त्विकाचार का ही आश्रय लिया जाता है | आज समय ऐसा आ गया है कि सनातनी मर्यादा को उसके मौलिक शास्त्रोक्त प्रारूप में संरक्षित तथा प्रवर्द्धित करने के लिये निग्रह सम्प्रदाय को पुनर्जागृत किया जाये | इस निमित्त निग्रह सम्प्रदाय के सिद्धान्त एवं ग्रन्थों के परिशीलन में दक्ष एवं समर्थ हंसवंशावतंश श्रीमन्निग्रहाचार्य जी ने कामाख्या में दीर्घकाल तक निग्रह-शक्तियों की आराधना करके दुर्लभतम ब्रह्मबोधक सारभूत परमाक्षरसूत्रों को प्राप्त करके उसपर विस्तृत ‘सूत्रविस्तार-भाष्य’ का प्रणयन करके निग्रहों के विलुप्तप्राय दर्शन को आधारभूत रूप से पुनः स्थापित करने का आरम्भ किया तथा अव्यक्त परब्रह्म और अव्यक्त जीव के स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये अव्यक्ताद्वैत दृष्टि से श्रुति, स्मृति, पुराण एवं तन्त्र की सर्वमान्य परम्परा से उसकी साधुता एवं सम्बद्धता को सिद्ध भी किया |कौन निग्रहत्व का अधिकारी है ?
काश्यपेनात्रिपुत्रेण वीर्यौजौ जातवेदसा | प्राप्नुवन्ति महात्मानो निग्रहाः सर्वनिग्रहाः || नमः परमपित्रे च ब्रूयाद्भास्करसन्निधौ | राज्ञे नमोऽस्तु सोमायाग्नये वै ब्रह्मणे नमः || ज्ञानविज्ञानसंयुक्ता: सर्वलोकहिते रताः | शास्तारः छद्मवृत्तीनां निग्रहार्हा मनीषिणः || अव्यक्ताद्वैतसंलिप्ता निर्भया धर्मपालकाः | धर्मपुत्राः शुभा विप्रा निग्रहार्हा मनीषिणः || लोभसंक्षोभनिर्मुक्ताः शमिताशिवकारकाः | सर्वाचार्यमतं ज्ञात्वा निग्रहार्हा मनीषिणः || देवताभेदद्रष्टारो वर्णाश्रमपरायणाः | लोकमान्या महासत्वा निग्रहार्हा मनीषिणः || धर्मसंरक्षणार्थायाधर्मसंहारहेतवे | निग्रहाणाञ्च धर्माज्ञा लोके लोके प्रवर्धताम् || ( दिव्यास्त्रविमर्शिनी )
सभी प्राणियों के ऊपर नियन्त्रण करने वाले महात्मा निग्रहगण भगवान् सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि से बल और ओज प्राप्त करते हैं (इसीलिए, निग्रहों को) भगवान् सूर्य का दर्शन होने पर, ‘हे परमपिता ! आपको प्रणाम है’, चन्द्रदेव के दर्शन होने पर, ‘हे महाराज ! आपको प्रणाम है’, तथा अग्निदेव के दर्शन होने पर, हे परब्रह्म ! आपको प्रणाम है’, ऐसा कहना चाहिए | जो बुद्धिमान् जन ज्ञान और विज्ञान से युक्त हैं, सभी लोकों का हित करने में प्रवृत्त रहते हैं, पाखण्डियों का मर्दन करने वाले हैं, वे ही निग्रहत्व के योग्य हैं | जो बुद्धिमान् जन अव्यक्तरूपी अद्वैत के मार्ग पर चलने वाले हैं, जिनके व्यक्तित्व में निर्भयता है, जो धर्म का पालन करने वाले हैं, ऐसे धर्माचारी शुभ ब्राह्मण ही निग्रहत्व को धारण करने के योग्य हैं | जो बुद्धिमान् जन लोभादि के विकारों से मुक्त हैं, अशुभों का शमन करने में दक्ष हैं, सभी आचार्यों के मत [श्री (शंकर, रामानुज, निम्बार्क, मध्व, वल्लभ, रामानंद, कौल, माहेश्वर, निग्रह, पाशुपत, अघोर) आदि] के ज्ञान को प्राप्त करके ही निग्रहत्व के योग्य होते हैं | जो बुद्धिमान् जन पञ्चदेवों में अभेदबुद्धि रखने वाले हैं, वर्णाश्रम-मर्यादा के अनुरूप आचरण करने वाले हैं, अपने सदाचरण से सम्मान और तेजस्विता प्राप्त कर चुके हैं, वे ही निग्रहत्व के योग्य हैं | धर्म की रक्षा के लिए एवं अधर्म के संहार के लिए निग्रहों की यह धर्माज्ञा लोक लोकान्तर में वृद्धि को प्राप्त हो | निग्रह सम्प्रदाय में किस देवता की उपासना की जाती है, इस जिज्ञासा का शमन हम इस प्रकार करते हैं –यस्मादसावादित्यो ब्रह्म इति श्रुतिर्महावाक्योपनिषदि तथा च गणेशो वै ब्रह्म इति भगवान् गणकाचार्यो गणेशदर्शनसूत्रेष्वनुगृह्णात्यहं ब्रह्मस्वरूपिणीति देवीवाक्यमस्ति देव्यथर्वशिरसि परञ्च नारायणः शिवो विष्णुः शङ्करः पुरुषोत्तमः। एतैस्तु नामभिर्ब्रह्म परं प्रोक्तं सनातनमिति वराहपुराणे॥ तस्मादभेददर्शको निग्रहः। (परमाक्षरसूत्र, सूत्रविस्तारभाष्य)
‘ये आदित्य ब्रह्म हैं’ ऐसी महावाक्योपनिषत् की श्रुति कहती है तथा ‘गणेश ही ब्रह्म हैं’ ऐसा भगवान् गणकाचार्य ने गणेशदर्शन सूत्रों में अनुग्रह किया है, ‘मैं ब्रह्मस्वरूपिणी हूँ’ ऐसा देवी ने देव्यथर्वशीर्ष में कहा है तथा वराहपुराण का कथन है ‘नारायण, शिव, विष्णु, शंकर, पुरुषोत्तम, इन नामों के द्वारा सनातन परब्रह्म को कहा गया है’; अतएव निग्रहाचार्य इनमें अभेददर्शन करते हैं |![](https://shribhagavatananda.guru/wp-content/uploads/2022/06/IMG_20220424_204705_692.webp)
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सभी शिष्यों के लिये नित्य करणीय कृत्यपञ्चक
(१) स्तुतिघोष शास्त्रारण्यमहासिंहं शास्त्रसिन्धोस्तिमिङ्गलम् | नुमः समन्वयाचार्यं निग्रहं धूर्तनिग्रहम् ||
(२) प्रपत्तिघोष कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||
(३) तत्त्वघोष देहदृष्ट्या तु दासोऽहं जीवदृष्ट्या त्वदंशकः | वस्तुतस्तु त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ||
(४) कीर्तिघोष धर्मसंरक्षणार्थायाधर्मसंहारहेतवे | निग्रहाणाञ्च धर्माज्ञा लोके लोके प्रवर्द्धताम् ||
(५) स्वस्तिघोष सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः | सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ||
(गुरु का ध्यान करते हुए) शास्त्ररूपी वन के महान् सिंह तथा शास्त्ररूपी समुद्र के तिमिंगल मत्स्य के समान, सभी सिद्धान्त एवं सम्प्रदायों का समन्वय करने वाले, धूर्तों का दमन करने वाले निग्रहाचार्य को हम प्रणाम करते हैं ||०१|| (गुरु एवं इष्ट में अभेद का ध्यान करते हुए) कृपणतारूपी दोष से नष्ट हुए स्वभाव एवं धर्म के विषय में भ्रमित बुद्धि वाला मैं आपसे कल्याण का मार्ग पूछता हूँ | जो भी मेरे लिये सर्वाधिक कल्याणकारी हो, आप मुझे निश्चित करके उसका उपदेश करें | मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शरणागत की रक्षा करें ||०२|| (इष्ट का चिन्तन करते हुए) हे ईश्वर ! देह की दृष्टि से मैं आपका दास हूँ, जीव की दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ तथा तत्त्वतः यथार्थ की दृष्टि से मैं और आप एक ही हैं, भिन्न नहीं, यह मेरी निश्चित मति है ||०३|| (सम्पूर्ण विश्व का चिन्तन करते हुए) धर्म की रक्षा एवं अधर्म के संहार के लिये निग्रहों की धर्माज्ञा लोक-लोकान्तर में वृद्धि को प्राप्त हो ||०४|| (सम्पूर्ण विश्व का चिन्तन करते हुए) सभी लोग सुखी हों, सभी लोग स्वस्थ रहें, सभी लोग कल्याणमय चिन्तन करें तथा किसी को भी कष्ट भोगना न पड़े ||०५||वैष्णवी दीक्षा से युक्त शिष्यों के लिये
इष्ट नमस्कार नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय धीमहि | प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ||
भगादि षडैश्वर्य से युक्त भगवान् के लिये नमस्कार है | हम वासुदेव का ध्यान करते हैं | प्रद्युम्न, अनिरुद्ध एवं संकर्षण नाम वाले चतुर्व्यूह नारायण को नमस्कार है |
शैवी दीक्षा से युक्त शिष्यों के लिये
इष्ट नमस्कार तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर | यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ||
हे महान् ईश्वर ! आप किस प्रकार के हैं, मैं आपके तत्त्व को सम्यक् प्रकार से नहीं जानता हूँ | हे महादेव ! आप जैसे भी हैं, उसी रूप और तत्त्व के निमित्त मैं प्रणाम करता हूँ |
शाक्त दीक्षा से युक्त शिष्यों के लिये
इष्ट नमस्कार नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः | नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ||
देवी को प्रणाम है | महादेवी को प्रणाम है | नित्य नवीन रचना करने वाली प्रकृति, कल्याण करने वाली भद्रा को प्रणाम है | उनके प्रति निश्चित ही हम शरणागत हैं |
सौरी दीक्षा से युक्त शिष्यों के लिये
इष्ट नमस्कार नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः | तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ||
जो विश्व के उत्पत्तिकर्ता हैं, नक्षत्र-ग्रह-ताराओं के अधिपति हैं, तेजस्वियों से भी अधिक तेजस्वी हैं, ऐसे द्वादश स्वरूपों वाले हे सूर्यदेव ! आपके लिये प्रणाम है |
गाणपत्य दीक्षा से युक्त शिष्यों के लिये
इष्ट नमस्कार नमः सर्वार्थसंसिद्धिनिधिकुम्भोपमात्मने | लम्बोदराय विघ्नेश व्यालालङ्करणाय ते ||
जिनका स्वरूप सभी कामनाओं एवं सिद्धियों को देने वाले निधिपूरित कलश के समान कल्याणकारी एवं देदीप्यमान है, ऐसे लम्बोदर, विघ्नों के स्वामी तथा सर्पों का आभूषण धारण करने वाले आप भगवान् गणेश के लिये नमस्कार है |
सबों के लिये आवश्यक षोडश निग्रह सिद्धान्त
* ईश्वर सभी प्राणियों के अन्दर स्थित है तथा वह अपनी इच्छा के अनुसार मायाशक्ति का प्रयोग करके समस्त देहधारियों का संचालन करता है |
* व्यक्ति को अपने पूर्वजन्म में कृत कर्मों के आधार पर इस जन्म का देह, वर्ण एवं जाति प्राप्त होती है तथा इस जन्म के कर्म के आधार पर अगले जन्मों के देह, वर्ण एवं जाति प्राप्त होंगे |
* वेद-शास्त्र अपौरुषेय, अपरिवर्तनीय, नित्य, अनन्त, सत्य तथा परम प्रमाण हैं तथा उनका ही तत्त्वविस्तार वेदांग, स्मृति, तन्त्रागम, इतिहास-पुराण, नीति-संहिता-दर्शनों में प्राप्त होता है अतः वे भी प्रामाणिक हैं |
* सनातन धर्म के सभी मान्य श्रुति, स्मृति, पुराण, तन्त्र, दर्शन आदि सर्वथा शुद्ध एवं अक्षरशः सत्य तथा प्रामाणिक हैं तथा इनमें कोई दोष या प्रक्षेप नहीं है | यदि कोई विषय हमें अनुकूल नहीं लग रहा है तो हमें ग्रन्थसमीक्षा के स्थान पर आत्मसमीक्षा करनी होगी |
* जिस प्रकार से हम मान-अपमान, सुख-दुःख आदि का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार सभी प्राणियों को इसका अनुभव होता है, अतएव किसी को भी दुःखी न करें |
* सनातन धर्म में देवताओं के यजन की सात्त्विक, राजस एवं तामस भेद से अनेकों विधियाँ, मन्त्र एवं सम्प्रदाय हैं | सभी शास्त्रानुकूल ही हैं अतः आप अपने सम्प्रदाय के प्रति निष्ठा रखें किन्तु दूसरे सम्प्रदाय का अनादर न करते हुए सहृदयता एवं सम्मान का व्यवहार करें |
* ब्रह्म के सभी सगुण रूप एवं अवतार समान रूप से पूजनीय एवं उद्धार में सक्षम हैं | जिस काल एवं स्थिति में जिस रूप एवं क्रिया की आवश्यकता थी, ईश्वर ने उसको ख्यापित किया | अतएव देवताओं में अभेदबुद्धि का भाव रखें | एक देवता के मन्त्र से दीक्षित होकर दूसरे देवता से उसकी तुलना करना, निन्दा करना अथवा हेय दृष्टि से देखना वर्जित है | आप यदि अपने इष्ट से भिन्न किसी देवता के विग्रह, शास्त्र अथवा उपासक को देखते हैं तो उन्हें भी अपने इष्ट का ही स्वरूप समझकर व्यवहार करें | सभी देवता आपके इष्ट के ही रूप हैं |
* कल्याण एवं सुख में सबका अधिकार है किन्तु उसे प्राप्त करने के लिये धर्म ने सबों के वर्ण-जाति-लिंग-संस्कार के आधार पर भिन्न भिन्न मार्ग एवं विधान बताये हैं | अन्य से प्रतियोगिता अथवा तुलना किये बिना, स्वयं के वर्ण-जाति-लिंग-संस्कार के लिये निश्चित मार्ग का अनुसरण करने से ही कल्याण एवं सुख की सिद्धि सम्भव है, अन्यथा नहीं |
* प्रकृति एवं इसके संसाधन हमारे भौतिक अस्तित्व के संरक्षण एवं स्वधर्म के पालन के लिये ईश्वर द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद हैं | इनपर हमारा स्वत्वाधिकार नहीं है, अतः इनका नितान्त सन्तुलित प्रयोग आवश्यक है | प्रकृति का उपयोग करें, उपभोग नहीं |
* व्यक्ति जिस भी वर्ण-आश्रम-जाति-लिंग से युक्त देह में हो, वहाँ से सीधे ही कर्म, ज्ञान अथवा भक्तियोग का आश्रय ग्रहण करके मोक्ष को प्राप्त कर सकता है किन्तु इसके लिये उसे अपने लिये निश्चित वर्णाश्रमसम्बन्धी शास्त्रीय मर्यादा का अनुपालन अनिवार्य है |
* अन्न, द्रव्य, शब्द तथा संगति शुद्ध होने पर व्यक्ति का उत्थान करते हैं तथा अशुद्ध होने पर इन्द्र का भी पतन करा देते हैं, अतएव अन्नदोष, द्रव्यदोष, शब्ददोष तथा संसर्गदोष से अधिकाधिक दूर रहें |
* गुरु कोई व्यक्ति या देह नहीं, तत्त्व का नाम है | जो भी आचार्य पूर्व में हो चुके, अभी हैं या होंगे, चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय, इष्ट तथा दर्शन के हों, यदि उनका आचार एवं सिद्धान्त श्रुतिस्मृतिपुराणागमसम्मत है तो उनके प्रति आदरभाव एवं अभेदबुद्धि रखें |
* व्यक्तिगत रूप से, पारिवारिक अथवा सामाजिक रूप से कहीं भी अधर्म हो रहा हो, शास्त्रविरुद्ध कृत्य हो रहा हो तो अपनी बुद्धि एवं बल की सीमापर्यन्त उस अधर्म का प्रतिकार करना आपका कर्तव्य है | जो व्यक्ति स्वयं सक्षम होने पर भी अधर्म का प्रतिकार नहीं करता है, उसे उस अधर्म का फल भोगना पड़ता है |
* गौ, वेद, ब्राह्मण, पतिव्रता स्त्री, सत्यवादी, सन्तोषी एवं उदार व्यक्ति इस पृथ्वी की जीवनीय शक्ति के धारक तत्त्व हैं |इनके प्रति सदैव सम्मान एवं आदर का भाव रखते हुए इनकी रक्षा करें | इनके प्रति किये गए पाप या अपराध का दण्ड अत्यन्त कठोर बताया गया है |
* आपके द्वारा किये गये प्रत्येक कर्म के सूर्य, चन्द्रमा, यम, काल, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश सदैव साक्षी रहते हैं अतएव एकान्त में भी अधर्म करने से अधिकाधिक बचने का प्रयास करें | किया गया शुभ अथवा अशुभ कर्म व्यक्ति को कभी न कभी भोगना ही पड़ता है अतएव क्रियाशुद्धि का विशेष ध्यान रखें | यदि युगप्रभाव से अधर्म हो गया हो तो उसे स्वीकार करें, सम्भव हो तो शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त करें किन्तु उसका समर्थन या दुराग्रहपूर्ण कुतर्क कदापि न करें |
ब्राह्मण वर्ण के शिष्यों के लिये निग्रहादेश
आपको ईश्वर ने समाज का मार्गदर्शक नियुक्त किया है अतएव अपने ज्ञान, तपस्या और सदाचार को अधिक से अधिक बढाते हुए शेष तीन वर्णों को अपनी सन्तान समझते हुए ज्ञान-विज्ञान की शास्त्रोक्त प्रेरणा देते रहें | अपने दैनिक स्वाध्याय, सन्ध्या आदि को नियमित रखने का प्रयास करें तथा शिखा, तिलक, यज्ञोपवीत एवं शास्त्रोक्त वेशभूषा का अनुपालन दृढ़ता से करें | ब्राह्मणों को अन्नदोष बहुत शीघ्र लगता है अतः अपने आहार की शुद्धि की समीक्षा बहुत ध्यान से करें | जिन वस्तुओं में जातिदोष (लहसुन-प्याज आदि), कालदोष (बासी) अथवा संसर्गदोष (रजस्वला से स्पृष्ट आदि) हो, ऐसे अन्न को ग्रहण करने से बचें | व्यवहार एवं वाणी में सौम्यता रखें किन्तु ब्रह्मा के भी अशास्त्रीय वक्तव्य या कृत्य का विरोध करने की दृढ़ता भी रखें | ब्राह्मण बनने के लिये आपको जितने जन्मों की तपस्या लगी है, उससे अधिक तपस्या ब्राह्मण बने रहने के लिये लगेगी अतः प्रमाद एवं दम्भ से दूर रहें | यज्ञ करना एवं कराना, शास्त्रोचित विषयों को पढ़ना एवं पढ़ाना, दान लेना एवं दान देना, यह छः कर्म आपके लिये विहित हैं |
क्षत्रिय वर्ण के शिष्यों के लिये निग्रहादेश
आप समाज के रक्षक हैं | अपने समुदाय में जितना सम्भव हो सके, अधिकाधिक बल का विस्तार करें | न्यूनतम एक शस्त्र के संचालन का दृढ अभ्यास करें तथा समयानुसार अन्य जनों को भी उसका विधिसम्मत प्रशिक्षण दें | आपकी उपस्थिति में कोई अन्याय हो रहा हो तो यह आपकी विफलता का संकेत है | अपने बल का उपयोग सदैव निर्बलों की रक्षा में करें | समाज आपके बल के कारण सुरक्षित अनुभव करे, आतंकित नहीं | ब्राह्मण वर्ण के लोगों को पितातुल्य समझें तथा वैश्य-शूद्र-अन्त्यजादि के साथ अपनी सन्तान के जैसे व्यवहार करें | गौ तथा ब्राह्मण अवस्था में कम भी हों तो पूजनीय होते हैं, इनसे द्रोह न करें | देवाराधन, दान, यज्ञ तथा लोगों की रक्षा करना आपका नैसर्गिक वर्णधर्म है | अर्द्धरात्रि को भी यदि कोई व्यक्ति आपके पास शरण में आये तो उसे अभय प्रदान करें | धर्म के सन्दर्भ में शास्त्रज्ञ ब्राह्मण की संगति करके मार्गदर्शन लेते रहें | यज्ञ करना, शास्त्रोचित विषयों को पढ़ना एवं दान देना, यह तीन कर्म आपके लिये विहित हैं |
वैश्य वर्ण के शिष्यों के लिये निग्रहादेश
आप समाज की आर्थिक गतिविधियों के आधार हैं | आप धर्मसम्मत वस्तुओं का व्यापार करें | कृषि, गौपालन तथा व्यापार आपका वर्णधर्म है | वस्तुओं में मिलावट करना, माप-तौल में धोखा देना एवं वस्तुओं के गुण-दोष के वर्णन में असत्य बोलना, ये व्यापार के तीन दोष हैं | अपने व्यापार में दोषत्रयी को न आने दें | ब्राह्मण वर्ण के लोगों को पिता, क्षत्रिय वर्ण के लोगों को बड़ा भाई एवं शूद्र-अन्त्यजादि को अपने पुत्र के समान समझकर व्यवहार करें | धर्म ने आपको ब्याज पर ऋण देने का अधिकार भी दिया है किन्तु उसका प्रयोग धार्मिक एवं मानवीय मूल्यों की सीमा में ही करें | कृपणता से दूर रहें | धर्मशाला, गौशाला, पाठशाला, अन्नशाला (अन्नक्षेत्र/सदाव्रत), देवालय, चिकित्सालय आदि के निर्माण अथवा संचालन में धन का पर्याप्त नियोजन करें | किसी भी अनैतिक स्रोत से धन का संग्रह न करें अन्यथा पूर्वार्जित धन के भी नष्ट होने की सम्भावना रहती है | धन एवं व्यापार को अपनी साधना समझें, वासना नहीं | यज्ञ करना, शास्त्रोचित विषयों को पढ़ना एवं दान देना, यह तीन कर्म आपके लिये भी विहित हैं |
शूद्र वर्ण, वर्णसंकर, अन्त्यज अथवा वनवासी समुदाय के शिष्यों के लिये निग्रहादेश
आप समाज के शिल्प-कौशल, विभिन्न विभागों के सेवा-श्रम एवं भोग्य सामग्री के उत्पादक हैं | आप द्विजातियों को अपना अभिभावक समझते हुए व्यवहार करें | गौ, देवता एवं ब्राह्मण के प्रति श्रद्धा का भाव रखें | जो भी धर्मग्रन्थ आपके अधिकार हेतु विहित हैं, उनका स्वाध्याय करें | शेष धर्मग्रन्थों के विषय योग्य ब्राह्मण के माध्यम से श्रवण करके जानें | यद्यपि आपके लिये शास्त्र ने ब्राह्मणों के समान मांस-मदिरा आदि का कठोर निषेध नहीं किया है, फिर भी जीवन में अधिक से अधिक शुद्धि का पालन करना आपको शीघ्र कल्याण प्रदान करेगा | आप जिस भी जाति के अन्तर्गत हैं, उस जाति का नैसर्गिक कौशल बिना हीनभावना के अवश्य सीखें और उस कौशल को विकसित करने का प्रयास करें | व्यवहार में विनम्रता रखते हुए आलस्य, हठ तथा दुराग्रह से दूर रहें | विधर्मियों के बहकावे में न आते हुए अपने पूर्वजों के गौरव तथा धर्मनिष्ठा का स्मरण करें | (वेदोक्त विषयों के अतिरिक्त तन्त्रोक्त एवं पुराणोक्त विधि से) यज्ञ करना, शास्त्रोचित विषयों को पढ़ना एवं दान देना, यह तीन कर्म आपके लिये विहित हैं |
स्त्रियों के लिये निग्रहादेश
नारीधर्म का पालन स्त्रियों को समस्त यज्ञों का फल प्रदान कर देता है | अपने आप को पवित्र रखें | रजस्वला होने की स्थिति में देवकार्य, पितृकार्य एवं प्रत्यक्ष गृहकार्य न करें | हावभाव पर संयम रखें | अधिक उम्र वाले पुरुष को पिता, समान आयु वाले को भाई एवं कम उम्र वाले को सन्तान समझकर व्यवहार करें | अपने पति को अपना प्रधान गुरु तथा इष्ट मानकर उनमें ही ईश्वर का ध्यान करके उनके मनोनुकूल व्यवहार करें | यदि पति किसी संकट में हो तो उससे घृणा या असहयोग न करें | धन का व्यय सन्तुलित रूप से करें किन्तु कृपणता न रखें | अतिथि और भिक्षुकों को यथासम्भव सन्तुष्ट रखें | अपने व्यवहार, वस्त्र, तथा वाणी में असभ्यता न आने दें | पति के माता-पिता, बहन- भाई को अपने माता-पिता, भाई-बहन के समान समझते हुए व्यवहार करें | दूसरे के बहकावे में न आते हुए अपने विवेक का प्रयोग करें | किसी भी ऐसी वस्तु की मांग या कलह अपने पति से न करें जिसे पूरा करने में उन्हें कष्ट या असुविधा हो | स्त्रियों के लिये विहित व्रत आदि को अपने पति की सम्मति से करें | पति के साथ उनके सुख-दुःख की चर्चा करें, उनका साथ न छोड़ें | अनायास ही किसी पर विश्वास करने से बचें | एकान्त में परपुरुष के साथ निवास एवं वार्तालाप न करें |
कुछ और ध्यातव्य विषय
अपने वर्णधर्म के अनुसार निश्चित कर्म को करने से व्यक्ति शीघ्र ही कल्याण को प्राप्त करता है | अपने वर्ण के प्रति निष्ठा तथा दूसरे वर्ण के प्रति सहयोग एवं सम्मान का भाव रखें | न्याय, सत्य एवं सदाचार ही आपके प्रधान बल हैं | इनसे भ्रष्ट व्यक्ति निग्रह सम्प्रदाय के योग्य नहीं होता | सत्य और न्याय के साथ कभी छल न करें | किसी भी व्यक्ति की शारीरिक, आर्थिक या मानसिक स्थिति अथवा जातिगत विषय को लेकर अप्रामाणिक एवं अपमानजनक शब्द का प्रयोग करना निषिद्ध है | द्वार पर आये हुए याचक को उसकी आवश्यकता एवं अपनी क्षमता के अनुसार अन्न, जल, वस्त्र अथवा धन देकर सन्तुष्ट करना आपका कर्तव्य है | ठगों से बचें |
अपने क्षेत्र में रहने वाले किसी भी रोगी, वृद्ध, अनाथ अथवा दरिद्र व्यक्ति का यथासम्भव सहयोग करना आपका प्राथमिक धर्म है | अपने पास स्थित अतिरिक्त धन, वस्त्र या अन्न को इन्हें देने में कोई कृपणता नहीं करनी चाहिये | पशु-पक्षियों तक का भी भरण-पोषण करने का निर्देश शास्त्र देते हैं, व्यक्तिगत रूप से अहिंसा और अक्रोध का पालन करें किन्तुनिर्बल, असहाय, धर्म, देश, गौ, स्त्री, बालक, ब्राह्मण आदि की रक्षा के समय पूर्ण शक्ति-सामर्थ्य का प्रदर्शन करें |म्लेच्छ एवं पतितों की संगति से बचें | प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा और शुद्धि का ध्यान रखें | वन, नदी, भूमि, अन्न, वायु आदि को अशुद्ध एवं नष्ट करने वाला व्यक्ति ब्रह्महत्या का भागी होता है | स्मरण रखें, आप पृथ्वी में निवास करने वाली एक प्रजाति हैं, एकमात्र प्रजाति नहीं |
प्रत्येक दिन, मास अथवा वर्ष में अपनी धर्मसम्मत स्रोत से अर्जित सम्पत्ति की समीक्षा करके धन का एक से दस प्रतिशत भाग धर्मकार्य में देना अनिवार्य है | यह दान आप अपने निजी स्तर पर भी कर सकते हैं अथवा अपने गुरु को प्रदान करके उनके धर्मसम्मत प्रकल्पों में सहयोगी बन सकते हैं | प्रत्येक वर्ष कम से कम एक बार अपने क्षेत्र में तीन, पांच, सात, नौ, ग्यारह या पन्द्रह दिवसीय सत्र की धर्मसभा का आयोजन करना अनिवार्य है | इसमें निग्रहाचार्य जी उस क्षेत्र में सनातनधर्मियों की धर्म-सम्बन्धी शंका तथा जिज्ञासाओं का शमन सीधे सम्वाद एवं प्रश्नोत्तर के माध्यम से करेंगे | अपने क्षेत्र में स्थित देवालय, मठ, गौशाला, गुरुकुल आदि की रक्षा, संचालन एवं व्यवस्था का ध्यान रखना आपका कर्तव्य है | प्रत्येक निग्रह-शिष्य अपने क्षेत्र को अधिक से अधिक दृढ एवं धर्ममय बनाये |
अपने वर्ण-जाति की मर्यादा के अनुसार ही वैवाहिक सम्बन्ध आदि करें | धर्म की रक्षा केवल जनसंख्यावृद्धि से नहीं अपितु धर्मानुसार आचरण करने से होती है | निग्रहाचार्य जी के प्रत्येक सिद्धान्त, वक्तव्य, लेख तथा क्रिया का शास्त्रीय आधार, स्पष्टीकरण एवं प्रमाण सार्वजनिक रूप से प्राप्त करने के लिये उनके सभी शिष्य सर्वदा अधिकृत एवं स्वतन्त्र हैं | अपने घर में बच्चों की संगति, आहार, वस्त्र, व्यवहार तथा विचार में अधिक से अधिक धर्मसम्मत गुण भरें | उन्हें प्रतिदिन समय दें | उनके साथ मित्र के समान बैठकर उनके विचार जानें, सुख-दुःख का हाल जानें | प्रतिदिन कुछ समय उन्हें अपने महापुरुषों, देवताओं तथा धर्मग्रन्थों के बारे में बताएं | अपने घर में गीता, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों को रखें और नियमित रूप से पढ़ते एवं पढ़ाते रहें | प्रत्येक वस्तु को खाते-पीते समय भगवान् को मानसिक रूप से निवेदित करके ही ग्रहण करें |
दापयेत्स्वकृतं पापं यथा भार्या स्वभर्तरि | तथा शिष्यकृतं पापं गुरुर्गृह्णाति निश्चितम् ||
जिस प्रकार से पत्नी पति में अपने पाप को स्थापित कर देती है, उसी प्रकार से शिष्य के किए हुए पाप को गुरु भी निश्चित ही ग्रहण करता है, अतएव अपने गुरु को नरकगामी न बनायें | यदि आप ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण से हैं और पतितसावित्री अथवा व्रात्य दोष से युक्त हैं तो आप वेदोक्त मन्त्र या विधान के लिये बहिष्कृत हैं | आप प्रायश्चित्तपूर्वक पुनः यज्ञोपवीत ग्रहण करके शुद्ध हों फिर वेदोक्त कर्म करें या करायें या तन्त्रोक्त एवं पुराणोक्त दीक्षा लेकर इष्ट के उपासना मार्ग का अनुसरण करें | विदेशयात्रा एवं समुद्रपारगमन आदि से भी बचें | राजकर्मचारी, रोगी तथा विद्यार्थियों हेतु इसमें प्रायश्चित्तपूर्वक पारिस्थितिक छूट है | ब्राह्मण का छठे (मतान्तर से आठवें) से लेकर सोलहवें वर्ष की अवस्था तक, क्षत्रिय का आठवें (मतान्तर से दसवें) से लेकर बाईसवें वर्ष की अवस्था तक एवं वैश्य का दसवें (मतान्तर से बारहवें) से लेकर चौबीसवें वर्ष की अवस्था तक यदि अपने कुल, गोत्र एवं शाखा-सूत्र के अनुसार यज्ञोपवीत न हुआ हो अथवा होने के बाद भी नियमित पालन न हो रहा हो तो ऐसे द्विजाति की व्रात्य पतितसावित्री संज्ञा हो जाती है जिसके बाद बिना शास्त्रसिद्ध प्रायश्चित्त के वह वेदोक्त क्रिया करने या कराने का अधिकारी नहीं होता है | स्त्री एवं शूद्रों के लिये वेदोक्त-उपनयन का विधान शास्त्रों में नहीं है | यतो धर्मस्ततो जयः (जहाँ धर्म है, वहीं विजय है) …![](https://shribhagavatananda.guru/wp-content/uploads/2022/06/IMG_20190426_062106-scaled.jpg)
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