Home प्रश्न समाधान ब्रह्म, माया, संसार एवं जीवात्मा पर दार्शनिक विवेचन

ब्रह्म, माया, संसार एवं जीवात्मा पर दार्शनिक विवेचन

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💐मारुति💐: :– एक जिज्ञासा मन में है, ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या, इस वाक्य में पूर्ण विश्वास है, और ये ही सत्य है । किन्तु मिथ्या वस्तु की कोई उपयोगिता नहीं हो सकती, पर यहाँ मिथ्या कहे जाने वाला जगत् से ही सत्य कहे जाने वाले ईश्वर की प्राप्ति होती है,रहस्य क्या है?

🌞 श्रीभागवतानंद गुरु 🌞: :– क्योंकि जगत मात्र मिथ्या नहीं है। यह भी एक दृष्टिकोण से सत्य है। अतः इस सत्य से उस पूर्ण सत्य की प्राप्ति होती है। उपनिषद् ने कहा कि *भोक्ता भोग्यं प्रेरितारम् च मत्वा…त्रिविधं ब्रह्ममैतत्* ब्रह्म तीन रूपों में भासता है। भोक्ता (जीवत्व की स्थिति प्राप्त मायग्रस्त चेतन), भोग्य (ब्राह्मी शक्ति से संचालित त्रिगुणमयी मायारूपी प्रकृति) तथा साक्षी प्रेरक (ब्रह्मत्व की स्थिति प्राप्त मायामुक्त चेतन )। अब जब तीनों प्रारूपण में ब्रह्म ही भासता है तो सत्य तो तीनों ही हुए। परंतु *उत्तमः पुरुषः त्वन्यः…विभर्त्यव्य य ईश्वरः* आदि वचनों से सिद्ध होता है कि साक्षी की स्थिति से युक्त चेतन (ब्रह्म) भोक्ता तथा भोग्य से श्रेष्ठ है। अतः जहाँ संसार की असत्यता की बात है, वहाँ इसकी स्थिति की असत्यता का भाव है। इसकी विद्युन्मालावत् चपला परिवर्तनीया स्थिति की बात है। लेकिन संसार सत्य है। क्योंकि यह सत्य रूपी ब्रह्म का मायायुक्त प्रारूप है और *जीवो ब्रह्मैव नापरः* ब्रह्मांश जीवात्मा से भुञ्जीयमान है।

💐धीरज पाण्डेय💐 :– संसार सत्य है और ब्रह्म भी, यह न्यायानुकूल नही है क्योंकि संसार विनाशी है और ब्रह्म अविनाशी, यह सभी मानते हैं कि ब्रह्म से ही संसार उत्पन्न हुआ है शाश्वत ब्रह्म से अशाश्वत संसार कैसे उत्पन्न हुआ क्योंकि कारण से भिन्न कार्य नही होता : यदि हम संसार को मिथ्या कह दें तो नासतो विद्यते भावः इस न्याय से यह ठीक नही है।और सत कह दें तो सत का नाश नही होता इससे इसका भी बाध होता है। अब कारण से विलक्षण कार्य नही होता यह बात है अर्थात यदि कारण (ब्रह्म ) अविनाशी है तो कार्य (संसार) भी अविनाशी होना चाहिए , परन्तु यह नाशवान प्रत्यक्ष दीखता है।

🌞 श्रीभागवतानंद गुरु 🌞: संसार सत्य है। इसकी स्थिति नहीं। यह संसार इसीलिए सत्य है क्योंकि यह ब्रह्म और प्रकृति के संयोग से उत्पन्न हुआ है। ब्रह्म और प्रकृति दोनों सत्य है। *मम योनिर्महद् ब्रह्म….ततो भवति भारत* सत्य रूपी बीजप्रदाता ब्रह्मपिता और सत्य रूपी महायोनि प्रकृतिमाता के संयोग से इस त्रिगुणमयी सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। जिसमें स्वयं बीजप्रदता ब्रह्म भी सगुणाकृति से विचरित एवं व्याप्त होते हैं। भला असत्य में ब्रह्म की स्थिति कैसे हो सकती है ? *नासतो विद्यतेऽभावो नाभावो विद्यते सतः* अतः संसार सत्य तो है परंतु उसकी सत्यता अस्थिरता से युक्त है। *गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते* श्रुतियों के अनुसार संसार जब स्वयं ब्रह्मरूप है तो फिर मिथ्या कैसे ? क्योंकि ब्रह्म तो मिथ्या है नहीं। जो जहाँ महाभाग आचार्यों ने संसार की असत्यता की बात कही है वहाँ विकारों की असत्यता है। त्रैगुण्यसंयोग के फलस्वरूप उत्पन्न संसार के प्रपञ्च, अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेशादि पञ्च क्लेशों की अनित्यता की बात कही गयी है।

यह संसार नाशवान् अवश्य दिखता है पर वास्तव में इसका कभी नाश हो ही नहीं रहा है, बस इसका स्थानांतरण हो रहा है। एक के स्थान पर दूसरे का आगमन हो रहा है। *ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्* *न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा* अतः संसार तो अविनाशी है पर उसकी स्थिति नहीं। क्योंकि संसार की स्थिति का तो नाश होता है, उसके स्थान पर एक और, फिर उसके स्थान पर एक और, फिर उसके स्थान पर एक और, इस प्रकार से सूक्ष्मतम रूप में संसार की स्थिति नित्य नवीन बनी रहती है जिससे संसार का नाश नहीं होता। *ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या* उक्ति में इसी स्थिति के मिथ्या होने का संकेत है। क्योंकि बृहदारण्यक श्रुति की व्याख्या में आचार्य शंकर स्वयं संसार को भोग्य रूप से ब्रह्म सिद्ध कर चुके हैं। अतः यहाँ मिथ्या शब्द से संसार का नहीं, बल्कि उसकी अति सूक्ष्म गति से बदलने वाली स्थिति का संकेत है।

💐धीरज पाण्डेय💐: कारण दो होते हैं एक उपादान(मुख्य) कारण, दूसरा सहकारी कारण| इससे कार्य कारण भाव समझें| जैसे मिट्टी जल उठाने में असमर्थ है परन्तु मिट्टी से बना घड़ा जल उठा लेता है, क्योंकि घड़े में मिट्टी उपादान कारण तथा चाक दण्ड कुम्भार आदि सहकारी कारण है, यदि इस संसार के निमित्त हम ब्रह्म को उपादान कारण माने तो ब्रह्म में चाक दण्ड आदि कोई सहकारी कारण नही है जिससे कि संसार बन सके, क्योकि वह तो एकमात्र एवं स्वयमेव पूर्ण है तो वह किससे किसे किसके लये क्यों कब कैसे किसी को बनाये। यदि इस संसार को ब्रह्म से निर्मित माने तो ब्रह्म की पूर्णता में सन्देह करना होगा।

💐आचार्य महेश गहतोड़ी💐: संसार का नाश नहीं है, परिवर्तन होता है और ब्रह्म शाश्वत है । उसका परिवर्तन नहीं है । एक भोक्ता है दूसरा केवल द्रष्टा ही है : संसार ब्रह्म से निर्मित नहीं है ,ब्रह्म की संकल्प शक्ति से निर्मित है ।

🌞 श्रीभागवतानंद गुरु 🌞: इस विषय में भी श्रुतियों ने अनुग्रह किया। जिस प्रकार से यदि हम घड़े के उपादान कारण के रूप में मिट्टी को लेते हैं, और चाक दन्ड आदि को सहकारी कारण के रूप में, वैसे ही इस संसार रूपी घड़े के निर्माण में प्रकृति उपादान कारण है, और सत्व, रज तथा तम आदि गुण सहकारी कारण। क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग तथा गुण त्रय विभाग योग इस बात की गूढ़ व्याख्या करते हैं। हम इस संसार को यदि ब्रह्म से निर्मित जानें तो भ्रम होना स्वाभाविक है। वास्तव में संसार ब्रह्म से निर्मित नहीं हुआ है, ब्रह्म ही भोग्यरूप से संसार के रूप में परिलक्षित होता है। जैसे जल ठण्ड और ऊष्मा के कारण हिम तथा वाष्प के रूप में परिलक्षित होता है, वैसे ही ब्रह्म ही भिन्न भिन्न कार्यो की सिद्धि हेतु प्रकृति और जीव रूप से परिलक्षित होता है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जल से बर्फ और भाप की उत्पत्ति हुई। पर वास्तव में उत्पत्ति न होकर परावर्तन हुआ। अब ईश्वर को अव्यय बताया गया, सो इस परावर्तन में भी उसके मूल रूप और स्थिति का व्यय नहीं होता है तथा वह न्यूनाधिकादि विकारों से रहित रहता है।

💐धीरज पाण्डेय💐: यदि यह मान लिया जाये कि संसार सत्य है बस यह एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होता है तो जो सत्य है उसे परिवर्तित होने की क्या आवश्यकता है? और जो परिवर्तित हो जाये उसे सत्य किस प्रकार कह सकते है? और यदि यह मान लिया जाए कि संसार सत्य है तो फिर आप लोग परमार्थ की बात क्यों करते हैं, जाइये भोगों का आनन्द लीजिये।

🌞 श्रीभागवतानंद गुरु 🌞: सत्य संसार को परिवर्तित होने की आवश्यकता इसीलिए है कि उसके अवयव त्रिगुण निर्मित हैं। वह विकारग्रस्त है। जैसे भिन्न भिन्न आभूषणों में परिवर्तित होने पर भी स्वर्ण सदैव स्वर्ण ही रहता है, वैसे ही नाना रूपों में परिवर्तित होने पर भी संसार सदैव अपने मूल रूप में ही रहता है। परिवर्तन की आवश्यकता त्रिगुणों के हस्तक्षेप के कारण है। रही बात भोगों में लिप्त होने की, तो जीव के रूप में ब्रह्म का परावर्तन ही इसीलिए हुआ है कि वह प्रकृति का भोग कर सके। *द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया… अभिचाकसीति* राजा जनक, जनश्रुति, ऋषि भरद्वाज और गौतमादि ने षड्ऐश्वर्य का उपभोग किया। निर्लिप्तता से उपभोग बन्धनकारी नहीं होता।