💐 कुतर्की का प्रमाण ०४ 💐
द्रौपदी को दांव पर लगाकर हार जाने पर जब दुर्योधन ने उसे सभा में लाने को दूत भेजा तो द्रौपदी ने आने से इंकार कर दिया। उसने कहा जब राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं अपने को दांव पर लगाकर हार चुका था तो वह हारा हुआ मुझे कैसे दांव पर लगा सकता है? महात्मा विदुर ने भी यह सवाल भरी सभा में उठाया। द्रौपदी ने भी सभा में ललकार कर यही प्रश्न पूछा था -क्या राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं को हारकर मुझे दांव पर लगा सकता था? सभा में सन्नाटा छा गया। किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तब केवल भीष्म ने उत्तर देने या लीपा-पोती करने का प्रयत्न किया था और कहा था, “जो मालिक नहीं वह पराया धन दांव पर नहीं लगा सकता परन्तु स्त्री को सदा अपने स्वामी के ही अधीन देखा जा सकता है।”-
अस्वाम्यशक्तः पणितुं परस्व ।स्त्रियाश्च भर्तुरवशतां समीक्ष्य ।-(२०७-४३)
“ठीक है युधिष्ठिर पहले हारा है पर है तो द्रौपदी का पति और पति सदा पति रहता है, पत्नी का स्वामी रहता है।”
यानि द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हारे जाने का दबी जुबान में भीष्म समर्थन कर रहे हैं। यदि द्रौपदी पाँच की पत्नी होती तो वह ,बजाय चुप हो जाने के पूछती,जब मैं पाँच की पत्नी थी तो किसी एक को मुझे हारने का क्या अधिकार था? द्रौपदी न पूछती तो विदुर प्रश्न उठाते कि “पाँच की पत्नि को एक पति दाँव पर कैसे लगा सकता है? यह न्यायविरुद्ध है।”
स्पष्ट है द्रौपदी ने या विदुर ने यह प्रश्न उठाया ही नहीं। यदि द्रौपदी पाँचों की पत्नी होती तो यह प्रश्न निश्चय ही उठाती।
इसीलिए भीष्म ने कहा कि द्रौपदी को युधिष्ठिर ने हारा है। युधिष्ठिर इसका पति है। चाहे पहले स्वयं अपने को ही हारा हो, पर है तो इसका स्वामी ही। और नियम बता दिया – जो जिसका स्वामी है वही उसे किसी को दे सकता है,जिसका स्वामी नहीं उसे नहीं दे सकता।
💐 कुतर्की के चौथे प्रमाण का समाधान 💐
इस प्रसङ्ग में युधिष्ठिर मूर्धाभिषिक्त राजा थे। द्यूत के पक्षकार भी वही थे, दांव लगाने का कार्य उन्हीं का था। शेष भाई और द्रौपदी, उनके धन के समान थे, इसीलिए उस समय शेष पांडवों के अधिकार सीमित थे। फलतः, सम्पूर्ण घटना का केंद्र युधिष्ठिर ही बन गए, क्योंकि उन्होंने केवल द्रौपदी को ही नहीं, अपितु अपने सभी भाईयों को भी क्रमशः हारा था। इस प्रसङ्ग में युधिष्ठिर का ही मुख्य कार्य होने से शेष पाण्डवों का वर्णन विशेष रूप से नहीं आया है। किंतु भीष्म पितामह के उत्तर को सुनने के ठीक बाद, जब दुःशासन ने द्रौपदी का अपमान किया है उसके मध्य में द्रौपदी का वर्णन देखिए –
तथा ब्रुवन्तीं करुणां रुदन्तीमवेक्षमाणां कृपणान्पतींस्तान्॥
ऐसा बोलती हुई, करुणा से रोती हुई और अपने उन असहाय “पतियों” की ओर देखती हुई ….
ऐसी स्थिति में द्रौपदी का वर्णन है – पतींस्तान् शब्द है, बहुवचन है। एक पति होते तो पतिं तम्, एकवचन होता, किन्तु ऐसा नहीं है।
💐 कुतर्की का प्रमाण ०५ 💐
द्रौपदी कहती है- “कौरवो ! मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नी हूँ तथा उनके ही समान वर्ण वाली हूँ। आप बतावें मैं दासी हूँ या अदासी ? आप जैसा कहेंगे,मैं वैसा करुंगी।”-
तमिमां धर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णनाम् ।
ब्रूत दासीमदासीम् वा तत् करिष्यामि कौरवैः ।।-(६९-११-९०७)
द्रौपदी अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बता रही है।
💐 कुतर्की के पांचवे प्रमाण का समाधान 💐
धूर्तों ने बड़ी चालाकी से यहां मात्र एक दो ही श्लोक दिए हैं, जिससे उनके भ्रम की पुष्टि हो सके। वैसे दिए गए श्लोक का सन्दर्भ (६९-११-९०७) बड़ा विचित्र है। इसमें न पर्व, न अध्याय और न ही श्लोक संख्या की स्पष्टता हो रही है। सम्भवतः उन्होंने, अध्याय, श्लोक और पृष्ठ संख्या लिखी हो। श्लोक भी अशुद्ध लिखा है , सही श्लोक है –
तामिमां धर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णजाम् ।
ब्रूत दासीमदासीम् वा तत् करिष्यामि कौरवैः॥
अस्तु, हम देखते हैं कि इसमें क्या समस्या है। इस प्रमाण में द्रौपदी स्वयं को युधिष्ठिर की पत्नी बता रही है। इसमें गलत क्या है ? पांचों पांडवों में युधिष्ठिर भी तो आते हैं, तो फिर उनका नाम लेना सर्वथा उचित है। साथ ही, सभा में आयोजित द्यूत के मध्य दांव लगाने के मुख्य पक्षकार तो राजा युधिष्ठिर ही थे, इसीलिए उनका नाम विशेष रूप से उल्लिखित किया गया। किन्तु हम देखते हैं, कि उसी प्रसङ्ग के कई श्लोकों में द्रौपदी के पांच पतियों का स्पष्ट संकेत मिलता है, कुछ उदाहरण देखें –
एवमुक्तः प्रातिकामी स सूतः
प्रायाच्छीघ्रं राजवचो निशम्य।
प्रविश्य च श्वेव हि सिंहगेष्ठं
समासदन्महिषीं पाण्डवानाम्॥
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय – ८९, श्लोक – १५)
इस प्रकार से आदेश मिलने पर सूत प्रातिकामी राजा (दुर्योधन आदि) की बात मानकर शीघ्र ही गया। जैसे कोई कुत्ता सिंह के झुंड में घुस जाए वैसे ही वह “पांडवों” की पटरानी के पास गया। (यहां महिषीं पाण्डवानाम् शब्द के बहुवचन से द्रौपदी का सभी पांडवों की पत्नी होना सिद्ध है)
आक्षेपकर्ता ने अपने पक्ष के प्रमाण में जो श्लोक दिया है, उससे ठीक पहले वाला श्लोक ही देख लें,
कथं हि भार्या पाण्डुनां पार्षतस्य स्वसा सती।
वासुदेवस्य च सखी पार्थिवानां सभामियाम्॥
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय – ९१, श्लोक – १०,११)
पाण्डुओं (आत्मा वै जायते पुत्रः से, पांडवों) की पत्नी, धृष्टद्युम्न की बहन और वासुदेव श्रीकृष्ण की सखी (द्रौपदी), राजाओं की इस सभा में इस प्रकार से कैसे लायी गयी है ? (यहां भी पतियों के विषय में बहुवचन है)
द्रौपदी ने मुख्यतः इस प्रसंग में युधिष्ठिर का नाम इसीलिए लिया क्योंकि,
* द्यूतक्रीड़ा के मुख्य पक्षकार युधिष्ठिर ही थे, वही दांव लगा रहे थे।
* शेष सभी भाई एवं द्रौपदी का पक्ष स्वतन्त्र न होकर, राजा युधिष्ठिर के धन के रूप में था।
* युधिष्ठिर के निर्णय पर ही शेष भाईयों एवं द्रौपदी का अस्तित्व आश्रित था। अतएव मुख्यतः युधिष्ठिर का ही उल्लेख मिलता है।
जब विकर्ण ने सभा में द्रौपदी का पक्ष लिया था तो कर्ण ने उपहास करते हुए निम्न बात कही –
एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहितः कुरुनन्दन।
इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता॥
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय – ९०, श्लोक – ३५)
हे कुरुनन्दन ! देवताओं ने स्त्रियों का एक ही पति निश्चित किया है। किंतु इसके तो पहले से ही बहुत हैं, इसीलिए यह निश्चय ही बन्धकी (पांच पुरुषों से सम्बन्ध रखने वाली वेश्या) है। (यहां कर्ण ने जानबूझकर अपमान करने के लिए अनुचित व्यंग किया है)
दुर्योधन ने सभा में द्रौपदी के आ जाने के बाद निम्न बात कही है –
सर्वे हीमे कौरवेयाः सभायां
दुःखान्तरे वर्तमानास्तवैव।
न विब्रुवन्त्यार्यसत्वा यथाव-
त्पतींश्च ते समवेक्ष्याल्पभाग्यान्॥
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय – ९२, श्लोक – ०६)
कौरवों की इस सभा में तुम्हारे दुःख को देखकर भी श्रेष्ठ आचरण करने वाले ये लोग कुछ इसीलिए नहीं कह रहे हैं क्योंकि ये तुम्हारे भाग्यहीन “पतियों” को देख रहे हैं। (यहाँ भी पतिं, एकवचन नहीं, पतीन्, बहुवचन है)
अन्यं वृणीष्व पतिमाशु भामिनि
यस्माद्दास्यं न लभसि देवनेन।
अवाच्या वै पतिषु कामवृत्ति-
र्नित्यं दास्ये विदितं तत्तवास्तु॥
पराजितो नकुलो भीमसेनो
युधिष्ठिरः सहदेवार्जुनौ च।
दासीभूता त्वं हि वै याज्ञसेनि
पराजितास्ते पतयो नैव सन्ति॥
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय – ९२, श्लोक – २१-२२)
इस द्यूत से उत्पन्न दासीभाव से यदि तुम बचना चाहती हो तो किसी और को अपना पति बना लो। तुम अपने पतियों से इच्छानुसार व्यवहार नहीं कर सकती हो, क्योंकि अब तुम दासी हो गयी हो। नकुल और भीमसेन पराजित हो गए हैं। युधिष्ठिर, सहदेव एवं अर्जुन भी हार गए हैं। हे याज्ञसेनि ! तुम भी अब दासी बन गयी हो। ये हारे हुए पाण्डव अब तुम्हारे पति नहीं रहे। (यहां भी पतयो शब्द से बहुवचन का उल्लेख है)