Home खण्डन मण्डन क्या ईश्वर वास्तव में श्रेष्ठ है ?

क्या ईश्वर वास्तव में श्रेष्ठ है ?

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आजकल यह देखने में आ रहा है कि सनातन के रहस्यों को न जानने वाले, अज्ञानियों के द्वारा मनन चिंतन और निदिध्यासन के घोर अभाव के कारण उत्पन्न अज्ञानांन्धकार के फलस्वरूप वे बहुत से कुतर्क करने लगे हैं। आज मैं इस लेख के माध्यम से उन सबका शास्त्रसम्मत समाधान करूँगा। इन प्रश्नों के मूल लेखक को तो मैं नहीं जानता, किन्तु ये प्रश्न मेरे पास मुदित मिश्र जी ने भेजे हैं|

कुतर्कियों का कहना है कि “ईश्वर के तथाकथित गुणों में व्यापक रूप से विरोधाभास है। ईश्वर को सत्य न्यायशील करुणामय क्षमाशील सर्वशक्तिमान अविनाशी सर्वज्ञ चेतन सृष्टिकर्ता माना जाता है । अब मैं वैयक्तिक ईश्वर की धारणा के विरोधाभासो पर प्रकाश डालता हूँ ।”

प्रश्न 1. सर्वशक्तिमान का तात्पर्य है जो सब कुछ कर सके । क्या ईश्वर आत्महत्या कर सकता है ? यदि नहीं तो ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं यदि हाँ तो ईश्वर अविनाशी (जिसका नाश न हो सके ) नहीं । क्या ईश्वर ऐसा पिंड बना सकता है जो इतना भारी हो की ईश्वर स्वयं न उठा सके । यदि नहीं तो सर्वशक्तिमान नहीं यदि हाँ तो भी सर्वशक्तिमान नहीं ।

उत्तर 1 :- ईश्वर हर चर, अचर, जड़ और चेतन में व्यापकता से विद्यमान है। संसार भी वही है और संसारी भी वही। क्षेत्र भी वही है और क्षेत्रज्ञ भी वही। अतः जब संसार का नाश होता है तो ईश्वर के एक रूप का ही नाश हुआ। और इस प्रकार से हाँ, ईश्वर ने अपने एक रूप के संहार के समय आत्महत्या की। वेदों में ईश्वर को तीन मुख्य स्वभावों वाला बताया गया है। :- भोक्ता, भोग्य तथा प्रेरक। सामान्य भाषा में इन्हें क्रमशः जीव, माया एवं ब्रह्म कहा जाता है। इसमें जब ईश्वर जीवत्व को ग्रहण करते हैं तो ब्रह्मत्व का परित्याग कर देते हैं। या यूँ कहें कि माया का आवरण ओढ़ लेते हैं। और माया के आवरण से मुक्त होने पर वे जीवत्व के भाव से रहित होकर ब्रह्मत्व में स्थित हो जाते हैं। जिस प्रकार से जब तरल जल जम कर बर्फ बन जाता है तो जल का नाश हुआ भी, और नहीं भी। वैसे ही ईश्वर अपना नाश करने पर भी बने रहते हैं। यही उनकी विलक्षणता और दिव्यता है। अतः ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं। ईश्वर ऐसे पिंड को निःसन्देह बना सकते हैं जिसे वे उठा भी सकें और नहीं भी उठा सकें। यथा :- ईश्वर ने रावण के रूप में शिव का धनुष उठाने में असमर्थता दिखाई और श्रीराम के रूप में उसे उठाया। इस प्रकार भिन्न भिन्न रूपों में ईश्वर समस्त कार्यों को सम्पादित करके अपनी सर्वशक्तिमत्ता का प्रदर्शन करते हैं।

प्रश्न 2. क्या ईश्वर किसी के पाप क्षमा कर सकता है क्या ईश्वर किसी पर दया कर सकता है । यदि हाँ तो यह पक्षपात है क्योकि किसी एक को पाप का दंड न देना दूसरे को देना ये पक्षपात है अत: अन्याय है । अत: या तो ईश्वर न्यायशील नहीं या करुणाशील नहीं ।

उत्तर 2 :- ईश्वर न दयालु है न क्रूर। उसका कहना है कि “समोहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योस्ति न प्रियः”… मैं सभी प्राणियों के लिए समान भाव रखता हूँ, मेरा कोई शत्रु भी नहीं और कोई मित्र भी नहीं। अतः ईश्वर को दयालु या क्रूर नहीं कहा गया, अपितु कल्याणकारी कहा गया। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् में इसका संकेत है। ईश्वर ने यह बिलकुल नहीं कहा कि वे पाप का दण्ड नहीं देंगे। प्रश्नकर्ता पहले ग्रंथों का सम्यक् अध्ययन करें। श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें तथा नवें अध्याय में स्पष्ट कहा कि मैं अधर्मियों को घोर कष्टमय नर्क में भेजता हूँ जबकि मेरे भक्त और सज्जन पुरुष परम शांतिमय दिव्य धाम को प्राप्त करते हैं। ईश्वर किसी के चेहरे को देखकर दया भी नहीं करते और दण्ड भी नहीं देते। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर के अलग अलग व्यवहारों को स्वयं भी भोगता है। गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने ऐसे प्रश्नकर्ताओं के लिए ही कहा :- “सो परत्र दुःख पावई,सिर धुनि धुनि पछिताई। कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाई।”

प्रश्न 3. क्या ईश्वर ऐसे विश्व को नहीं बना सकता था जहाँ हर व्यक्ति पुण्यमय होता जहाँ सभी सुखी होते । सभी अच्छे होते । यदि नहीं बना सकता था तो इसका अर्थ हुआ की ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है । यदि बना सकता था परंतु उसने नहीं बनाया तो इसका अर्थ है ईश्वर करुणामय एवं दयानिधान नहीं । क्योकि उसने जानबूझकर ऐसा विश्व बनाया जहाँ पाप अनैतिकता दुःख और कष्ट है ।

उत्तर 3 :- ईश्वर ने अच्छा या बुरा, सुखी और दुःखी संसार नहीं बनाया। उन्होंने मात्र संसार बनाया। वे निरपेक्ष हैं। अतः उन्होंने इसे सुख या दुःख की स्वतंत्रता दी। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसे ही कर्मों के अनुसार सुखी या दुःखी होता है। ईश्वर की इसमें कोई प्रत्यक्ष संलिप्तता नहीं होती। ईश्वर ऐसा संसार बिलकुल बना सकते हैं जहाँ केवल सुख या दुःख हो। लेकिन यह ध्यातव्य है कि संसार केवल पृथ्वी ही नहीं है। इस ब्रह्माण्ड में अनेकों लोक हैं। जिन्हें सुख, दुःख और मिश्रित फलों के भोग हेतु बनाया गया हैं। अतः कुछ नारकीय संसार केवल दुखमय हैं। कुछ दिव्य संसार केवल सुखमय हैं। और कुछ मानवीय संसार मिश्रित गुणों वाले हैं। अतः ईश्वर सबों की रचना और सञ्चालन में दक्ष होने से सर्वशक्तिमान भी हैं।

प्रश्न 4. क्या ईश्वर सर्वज्ञ है क्या ईश्वर भूत भविष्य वर्त्तमान सभी कालो को जनता है । यदि हाँ तो इसका अर्थ है हमारा कर्म स्वातंत्र्य भ्रम मात्र है एवं क्योकि ईश्वर जानता है की मैं एक घंटे बाद क्या करूँगा । यदि मैं वह उसके ज्ञान के विपरीत करने के लिए स्वतन्त्र हूँ तो ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रह पायेगा । यदि मैं उसके ज्ञानानुकूल करने के लिए बाध्य हूँ तो इच्छा स्वातंत्रय भ्रम हुआ । फिर मनुष्य के सभी कर्म ईश्वरेच्छा के परिणाम हुए । और उन कर्मो के लिए जो मनुष्य ने अपनी स्वतंयरेच्छा से नहीं अपितु ईश्वरीय इच्छा से प्रेरित होकर किये है उसे दण्डित करना अन्याय है ।यह ईश्वर की न्यायशीलता पर आक्षेप करेगा ।

उत्तर 4 :- यदि आप यह मानते हैं कि ईश्वर की मर्ज़ी से सब होता है तो आप गलत हैं। यदि आप यह मानते हैं कि आप कर्म करने को पूर्णतः स्वतंत्र हैं तो भी आप गलत सोचते हैं। वस्तुतः गीता जी के अनुसार कर्म का नियंत्रण पांच पक्षों के हाथ में हैं :- अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा, और दैव। इसमें अधिष्ठान सीधे ब्रह्म हैं, ईश्वर हैं। उनकी इच्छा हो तो विशेष प्रयोजन से आपके स्वातंत्र्य में हस्तक्षेप करें या न करें। जैसे भगवान ने नारद मुनि को शिक्षा देने के लिए उन्हें विश्वमोहिनी के जाल में फंसा कर विविध कर्मों में लगाया। इसमें जीव को कोई कर्मफल से सुख या दुःख नहीं भोगना पड़ता। कर्ता आप स्वयं हैं। ईश्वरीय अंश होने से आपकी भी कर्म में स्वतंत्रता है। इसी आधार पर आपके कर्मफल का विवेचन होता है। जैसे आप प्रतिदिन असंख्य कर्म करते हैं। इसका सम्पूर्ण फल आपको भोगना पड़ता है। करण :- इस में आप किसी अन्य व्यक्ति (ईश्वर के अलावा अन्य आपके जैसा जीव) के द्वारा प्रेरित होकर अपनी इच्छा न होने पर भी कर्म करते हैं। जैसे बालि के द्वारा अपमानित होने पर सुग्रीव को प्राणभय से प्रवास करना पड़ा। यह इसीलिए होता है क्योंकि आपके पूर्वकृत किसी पाप या पुण्य के कारण आपको अन्य निमित्त से दुःख या सूख मिलता है। चेष्टा :- किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा किये गये ऐसे कर्म, जिसका आपसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं है, फिर भी आप न ईश्वर की प्रेरणा से, न अपनी स्वाभाविक इच्छा से, बस चेष्टा के कारण उसमें प्रवृत्त हो जाते हैं। जैसे दुर्योधन के द्वारा भीम को ज़हर देने पर नागों में उनकी चिकित्सा की। सीताहरण के प्रसंग में जटायु जी ने रावण से युद्ध किया। दैव :- किसी पूर्वकर्म के फलस्वरूप उत्पन्न भाग्य से आप उसे भोगने के लिए नया कर्म कर देते हैं। जैसे पूर्वजन्म में बालक के द्वारा जलाये जाने पर चींटियों ने अगले जन्म में रानियों के रूप में चित्रकेतु के इकलौते पुत्र को विष दे दिया। इन पांचों का कर्म की प्रेरणा में समान अधिकार है। बस ईश्वर का सञ्चालन इतना व्यवस्थित है कि कोई गड़बड़ नहीं होती और सबको अपना अपना अधिकार अच्छे से मिलता रहता है।

प्रश्न 5. यदि ईश्वर चेतन है तो उसमे विचारो का प्रवाह विद्यमान रहेगा । यह वैचारिक प्रवाह उसे अनित्य बना देगा । क्योकि हमारे मन में नए नए विचार आते रहते है और पुराने नष्ट होते रहते है । अतः हम एक होकर भी प्रतिक्षण नदी की धारा की तरह परिवर्तित होते रहते है बदलते रहते है । इस तरह ईश्वर भी परिवर्तनशील सिद्ध होगा । अत: या तो ईश्वर नित्य नहीं या चेतन नहीं ।

उत्तर 5 :- विचारों का प्रवाह मन से होता है। और मन का स्वभाव है अस्थिरता। चंचलता और अनित्यता। लेकिन “यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्” आदि श्रुति वचनों के अनुसार ईश्वर मनोहीन है, मनोतीत है। फिर भी सोचता है। अतः उस पर सामान्य मन की विशेषतायें लागू नहीं होती। वह विचारों की रचना करता है, उन्हें नियंत्रित करता है, उनके वश में नहीं होता। विचारों की अनित्यता इसीलिए होती है क्योंकि वे समय के साथ बदलते हैं। पर ईश्वर कालानुसार नहीं चलता। काल ईश्वरानुसार चलता है। अतः उसके विचार नित्य हैं, शाश्वत हैं और अपरिवर्तनीय हैं।

प्रश्न 6. ईश्वर को ब्रह्माण्ड (universe) का सृष्टा (creator)माना जाता है । Universe का अर्थ है everything that exists . यदि universe का अर्थ है “everything that exists,” और universe का सृजन (create) किया जा सकता है , तो, जिस भी सत्ता (entity)ने ब्रह्माण्ड (universe)बनाया , वह इस (universe) के बाहर की है . इसका अर्थ हुआ की वह सत्ता(entity) सम्पूर्ण अस्तित्व (“everything that exists)के बाहर की है .” इसलिए An entity “outside” existence does not exist!

उत्तर 6 :- निःसन्देह ईश्वर इस संसार और ब्रह्माण्ड से बाहर का है। लेकिन ऐसा नहीं है कि वह इसके अंदर नहीं हैं जैसे वायु घड़े के अंदर और बाहर, हमारे शरीर के अंदर और बाहर व्यापक रूप से विद्यमान है, हम ये नहीं कह सकते कि बोतल या गुब्बारे के अंदर हवा है तो बाहर नहीं, या बाहर है तो अंदर नहीं। वैसे ही ईश्वर इस संसार के अंदर भी है और बाहर भी।

प्रश्न 7. अंतिम कांटीय तर्क -यदि ईश्वर शाश्वत है इसका अर्थ हुआ कि वह हमेशा से है अर्थात अनंत समय से है । अतः आज इस क्षण तक अनन्त समय बीत चुका है या अनंत समय का अंत हो चुका है । यदि ये समय अनन्त था तो इसका अंत संभव नहीं । और यदि अंत हो चुका है तो यह अनंत समय नहीं था । अत: शाश्वत ईश्वर भी वदतो व्याघातक है।

उत्तर 7 :- ईश्वर कालातीत है और हम कालाधीन । जैसे अंडे के अंदर का जीव समग्र विश्व को नहीं जान सकता वैसे ही हम ईश्वर से अनभिज्ञ रहते हैं। समय क्या है ? परिवर्तन ही समय है। समय का बोध, उसके लक्षण परिवर्तन से ही परिलक्षित होते हैं। लेकिन ईश्वर नित्य होने से,शाश्वत होने से अपरिवर्तनीय है अतः कालातीत है। समय सदा है यदि परिवर्तन हो रहा है तो। जो भी वस्तु परिवर्तनीय है, उसके लिए समय सदा है, अनन्त है। और जो अपरिवर्तनीय है, उसके लिए समय का कभी कोई अस्तित्व था ही नहीं। अतः सापेक्षता से ईश्वर के लिए कोई काल ही नहीं, और हमारे लिए सदा काल ही काल है। लोग समझते हैं कि जो जितने अधिक प्रश्न कर सकते हैं, वो उतने बड़े मर्मज्ञ और विद्वान् हैं। भला जिसके पास स्वयं शंकाएं हों, वो कैसे तत्वद्रष्टा हो सकते हैं ?लेकिन आज लोग दुर्भाग्य से उल्टा समझ लेते हैं। प्रश्न का समाधान सोचने की बजाय, मनन करने में स्थान पर उन्हें हथियार बना कर स्वयंभू वीरता के सहारे ज्यादा वाक्पटुता दिखाते हैं।

ऐसे प्रश्नकर्ताओं में एक तो अध्ययन एवं श्रद्धा का अभाव होता है, दूसरे उनके अंदर स्वघोषित तर्कशीलता एवं अहंकार का बाहुल्य होता है| वे अति आत्मविश्वास से ग्रस्त होते हैं, किन्तु व्यक्ति को मात्र उचित आत्मविश्वास ही सफल और सुखी बना सकता है | आत्मविश्वास के आने के तीन प्रमुख स्रोत होते हैं-संसार, परिवार, ओर परमशक्ति। इन तीनों में जिससे भी मिले, ऊर्जा लेते रहनी चाहिए। लोगों का आदर केवल उनकी सम्पत्ति के कारण नहीं करना चाहिये। उनकी उदारता के कारण करना चाहिये। सूर्य का सम्मान उसकी उँचाई के कारण नहीं करते, उसकी उपयोगिता के कारण करते हैं, अतः व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व आदरणीय है । देवताओं के स्वरूप में भेद नहीं देखना चाहिए। ऐसा इसीलिए है कि जब आप परब्रह्म की स्त्रीरूप से उपासना करते हैं तो वहाँ उसके पुरुष रूपों को उसके समक्ष करबद्ध दिखाया गया है। और जहाँ पुरुषरूप से वर्णन है वहाँ स्त्री रूप को हाथ जोड़े दर्शाया है। इससे ज्ञानीजन तो परम् मुदित होते हैं पर सामान्य जन नहीं। जैसे एक अभिनेता एक चलचित्र में पुलिस बन जाये, दूसरे में चोर, तो वह वास्तव में न पुलिस है न चोर। वह तो कुछ भिन्न ही है। इस बात को जानते हैं वे दोनों रूपों का आनन्द लेते हैं, और जो नहीं, वे बार बार विषादग्रस्त होकर मोह में फंसते हैं। अतः दुर्गा के भक्त देवी के चरित्र का और विष्णु के उपासक उनके चरित्र का गान और अनुसरण करें। उन्हें सबों के एकात्मकता का उपदेश इस अल्प प्रज्ञा युक्त कलिकाल में आत्मघाती और भ्रामक ही सिद्ध होगा। शरणागति के बिना इससे पार पाना सम्भव नहीं। जरा सी बात से अर्थ बदल जाते हैं। उंगली उठे तो अपमान, और अंगूठा उठे तो प्रशंसा। यही है सम्प्रदाय भेद का उद्देश्य।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru