कुतर्क ८) किष्किन्धाकांड (२५/३०) में बालि के अंतिम संस्कार के समय सुग्रीव ने आज्ञा दी – मेरे ज्येष्ठ बन्धु आर्य का संस्कार राजकीय नियम के अनुसार शास्त्र अनुकूल किया जाये। किष्किन्धा कांड (२६/१०) में सुग्रीव का राजतिलक हवन और मन्त्रादि के साथ विद्वानों ने किया। क्या बंदरों में शास्त्रीय विधि से संस्कार होता है ?
समाधान ८) यहां भी लेखक ने मूल श्लोक नहीं दिए हैं। दिए होते और बात अधिक स्पष्ट होती। अस्तु, मैं ही श्लोक दे रहा हूँ –
आज्ञापयत्तदा राजा सुग्रीवः प्लवगेश्वरः ।
और्ध्वदैहिकमार्यस्य क्रियतामनुरूपतः॥
यहां सुग्रीव ने जो आज्ञा दी है, उसने सुग्रीव का वर्णन प्लवगेश्वर के विशेषण के साथ आया है, अर्थात् बंदरों के स्वामी। यहाँ मूल श्लोक देने से लेखक की पोल खुल जाती इसीलिए चतुराई से केवल हिंदी अर्थ दिया।
अब आगे आते हैं राज्याभिषेक की बात पर। यहां भी मूल श्लोक लेखक ने नहीं दिया है इसीलिए मैं ही दे रहा हूँ,
ततः कुशपरिस्तीर्णं समिद्धं जातवेदसम्।
मंत्रपूतेन हविषा हुत्वा मंत्रविदो जनाः॥
किन्तु इससे भी पहले इसी अध्याय के प्रथम श्लोक पर चर्चा करते हैं ताकि समाधान हो सके ,
ततः शोकाभिसंतप्तं सुग्रीवं क्लिन्नवासनम् ।
शाखामृगमहामात्राः परिवार्योपतस्थिरे॥
भातृवध से ग्लानिग्रस्त सुग्रीव को महान् शाखामृग मन्त्रीगण घेर कर खड़े हो गए।
यहां शाखामृग शब्द से बन्दर का ही संकेत है। बन्दर के लिए ही संस्कृत वांग्मय में शाखामृग शब्द प्रयुक्त होता है, किसी वनवासी मनुष्य के लिए नहीं। अब रही बात शास्त्रीय विधि से संस्कार की, तो बता चुका हूँ कि ये मूढ़बुद्धि, जंगली पशु नहीं थे, किंपुरुष देवयोनि के थे, वेदज्ञानसम्पन्न थे इसीलिए इनका संस्कार शास्त्रीय विधि से होता था। देवताओं ने ही किंपुरुष योनि का आश्रय लेकर बन्दर भालू इत्यादि के रूप में अवतार लिया था –
ब्रह्माजी ने रामावतार से पूर्व भगवान् विष्णु से कहा –
अहं तव सहायार्थमृक्षयोनौनिजान्शतः।
सम्भूतोऽस्मि पुरा देव महाबलपराक्रमः॥
(महाभागवत, ३७-१२)
मैं आपकी सहायता के लिए ऋक्षयोनि में अत्यंत पराक्रमी अवतार ले चुका हूँ।
ऐसे ही शिव जी ने भी कहा,
अहं वानररूपेण सम्भूय पवनात्मज:।
साहाय्यं ते करिष्यामि यथोचितमरिन्दम॥
(महाभागवत, ३७-०५)
हे शत्रुओं का नाश करने वाले विष्णो ! मैं वानर का रूप धारण करके पवनपुत्र बनकर आपकी यथोचित सहायता करूँगा।
ऐसे ही अन्य सभी देवता बन्दर भालू के स्वरूप का आश्रय लेकर भगवान की लीला में सहायता करने हेतु वन में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे –
तथैवान्ये च त्रिदशा ऋक्षवानररूपतः।
संस्थिता कानने विष्णुं प्रतीक्षन्तो महामते॥
(महाभागवत, ३७-२४)
अतएव स्वरूप से सभी बन्दर भालू होने पर भी तात्विक रूप से देवता थे इसीलिए वैसे ही व्यवहार भी करते थे।
कुतर्क ९) जहाँ तक जटायु का प्रश्न है, वह गिद्ध नामक पक्षी नहीं था। जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था। तब जटायु को देख कर सीता ने कहा –
जटायो पश्य मामार्य ह्रियमाणामनाथवत्।
अनेन राक्षसेद्रेण करुणं पाप कर्मणा॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, ४९-३८)
हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षसपति रावण मुझे अनाथ की भांति उठाये ले जा रहा है।
कथं तत् चन्द्रसंकाशं मुखमासीत् मनोहरम्।
सीतया कानि चोक्तानि तस्मिन् काले द्विजोत्तम॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, ६८-०६)
यहाँ जटायु को आर्य और द्विज कहा गया है। यह शब्द किसी पशु-पक्षी के सम्बोधन में नहीं कहे जाते।
रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –
जटायुः नाम नाम्नाहम् गृध्रराजो महाबलः।
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड ५०-०४)
अर्थात्- मैं गृधकूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु है।
यह भी निश्चित है कि पशु-पक्षी किसी राज्य का राजा नहीं हो सकते। इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं कि जटायु पक्षी नहीं था, अपितु एक मनुष्य था। जो अपनी वृद्धावस्था में जंगल में वास कर रहा था।
खंडन ९) इस कुतर्क में लेखक की पूर्ण मूर्खता और अंधत्व का संकेत मिलता है। आर्य कोई व्यक्ति या समुदाय या जाति का नाम नहीं होता, श्रेष्ठ आचरण करने वाले को आर्य कहते हैं और ये बात तो आर्य समाजियों की समझ में आने से रही। जटायु अत्यंत धर्मात्मा, नीतिनिपुण थे एवं राजा दशरथ के मित्र भी थे इसीलिए सीता जी ने उन्हें पितातुल्य जानकर ही आर्य कहा। स्वयं श्रीराम जी भी राजा दशरथ और जटायु को समान समझ कर सम्मानित व्यवहार करते थे –
राजा दशरथः श्रीमान् यथा मम मया यशाः।
पूजनीयश्च मान्यश्च तथायं पतगेश्वरः॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, ६८-२६)
यहां जटायु जी के लिए राम जी ने पतगेश्वर शब्द का प्रयोग किया है। पतगेश्वर का अर्थ है उड़ने वालों का राजा, और सभी जानते हैं कि मनुष्य नहीं उड़ते, पक्षी ही उड़ते हैं।
अब आते हैं द्विज शब्द पर। लेखक स्वयं महामूर्ख है जो उसे अनेकार्थ शब्दों का ज्ञान नहीं। द्विज कहते किसे हैं ? जिसका दो बार जन्म हो। ब्राह्मण आदि द्विजाति का यज्ञोपवीत ही दूसरा जन्म है, इसीलिए उन्हें द्विज कहते हैं। किंतु केवल उन्हें ही द्विज नहीं कहते, पक्षियों को भी द्विज कहते हैं, क्योंकि उनका पहला जन्म अंडे के रूप में होता है और दूसरा जन्म अंडे के बाहर निकलने ओर होता है। दो बार जन्म लेने से दांतों को भी द्विज कहते हैं। अमरकोष में मछली, सर्प, पक्षी आदि अंडे से उत्पन्न जीवों को भी द्विज बताया गया है – अण्डजः । स पक्षिसर्पमत्स्यादिः (अमरकोष, ३-३-३०) इसीलिए यहां द्विज का अर्थ मनुष्य नहीं, पक्षी ही है। और निःसन्देह द्विज शब्द पक्षियों के सम्बोधन में भी कहा जाता है।
अब तीसरे प्रमाण पर आते हैं जो लेखक ने दिया है। दिए गए श्लोक या उसके पूर्वापर प्रसङ्ग से भी कहीं यह स्पष्ट नहीं होता है कि “मैं गृध्रकूट का भूतपूर्व राजा हूँ” गृध्रकूट शब्द कहाँ से ले आये ? और भूतपूर्व राजा, यह शब्द किस संस्कृत पद का अनुवाद है ? लेखक मनमाना अनुवाद करके भ्रमित कर रहा है। सीधा अर्थ है, मैं जटायु नाम का महाबली गृध्रराज हूँ। और हां, जटायु कोई मनुष्य नहीं थे जो अपनी वृद्धावस्था में जंगल में वास कर रहे थे। वृद्ध थे, जंगल में थे किंतु वे तब भी निरंतर राज्य कर रहे थे, ऐसा उन्होंने स्वयं रावण से कहा है कि पूर्वजों के दिये गए राज्य का वे पिछले साठ हजार वर्षों से निरंतर पालन करते आ रहे हैं –
षष्टिवर्षसहस्राणि जातस्य मम रावण।
पितृपैतामहं राज्यहं यथावदनुतिष्ठतः॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, ५०-२०)
लेखक का तर्क है कि पशु पक्षी किसी राज्य के राजा नहीं होते। पहले यह स्पष्ट करें कि राज्य की क्या परिभाषा है ? क्या केवल मनुष्यों के द्वारा अपने समाज के आधार पर बनाया गया शासकीय विभाजन ही राज्य है ? नहीं। अपितु प्रत्येक प्राणी के लिए उसका अपना अलग राज्य होता है। मधुमक्खियों का भी अपना झुंड होता है जिसकी एक रानी होती है। यही बात मछली और चींटियों पर भी लागू होती है। उनके लिए उनका भी एक राज्य है, एक व्यवस्था है, उसके नियम और अनुशासन हैं और साथ ही एक शासक भी है। बड़े जीवों में बगुला, गीध, भेड़िया, बन्दर, हिरण, हाथी, सिंह आदि के भी झुंड एक नायक के नीचे चलते हैं। मनुष्यों के बनाये राज्य ही प्रकृति में नहीं हैं, अन्य भी हैं जो मनुष्यों की दृष्टि से समझे नहीं जा सकते। वैसे ही पक्षियों के राज्य के राजा जटायु थे और वे स्वयं गीध की योनि का आश्रय लेकर रहते थे। इस बात को पुष्ट करने के लिए कुछ श्लोक देता हूँ –
रक्षसां नीयमानां तां जटायु: पक्षिपुंगवः।
(महाभागवत, ३८-५२)
यहां जटायु को पक्षियों में श्रेष्ठ बताया गया है।
तद्बभूवाद्भुतं युद्धं गृध्रराक्षसयोस्तदा।
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, ५१-०३)
तब उन गीध (जटायु) और राक्षस (रावण) के मध्य अद्भुत युद्ध हुआ।
स तानि शरजालानि गृध्रः पत्ररथेश्वरः।
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, ५१-०५)
यहां पत्ररथ का अर्थ पक्षी है, क्योंकि वे पंखों से ही भ्रमण करते हैं। उनके स्वामी गृद्ध, ऐसा विशेषण जटायु जी के लिए आया है।
उसी सर्ग में आगे युद्ध के वर्णन में आया है कि कैसे जटायु ने अपने पंखों से रावण को मारा, युद्ध में नाखून, मुख (चोंच) और पंजों का प्रयोग किया। कैसे रावण ने उनके पैर, पंख आदि काट डाले, और साथ ही जटायु जी के लिए सर्वत्र पतगेश्वर, गृद्ध, पक्षियों में प्रवर (श्रेष्ठ) आदि शब्द भी आये ही हैं, यथा –
स तानि शरजालानि पक्षाभ्यां तु विधूय ह।
और,
केशाञ्चोत्पाटयामास नखपक्षमुखायुधः।
एवं,
राक्षसानां च मुख्यस्य पक्षिणां प्रवरस्य च।
साथ ही,
पक्षौ पादौ च पार्श्वौ च खड्गमुद्धृत्य सोऽच्छिनत्।
स छिन्नपक्षः सहसा रक्षसा रौद्रकर्मणा।
निपपात महागृध्रो धरण्यामल्पजीवितः॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, सर्ग – ५१)
राम जी ने बाद में जटायु का दाह संस्कार एवं श्राद्ध भी किया है, हालांकि ये बात आर्य समाजियों की क्षुद्र बुद्धि में नहीं आएगी क्योंकि उन्हें तो श्राद्ध पाखण्ड ही लगता है। इसीलिए हम आर्य समाजियों का अनुसरण न करते हुए श्राद्ध का समर्थन करेंगे क्योंकि ये स्वयं श्रीराम जी के द्वारा आचरित है। वहां दाह संस्कार से पूर्व राम जी ने कहा है कि इस घोर राक्षसों से घिरे वन में भी आजतक हमलोग इन पितातुल्य गृद्धराज जटायु के कारण ही निर्भय होकर रहते थे।
बहूनि रक्षसां वासे वर्षाणि वसता सुखम्।
अनेन दण्डकारण्ये विशीर्णमिह पक्षिणा॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकांड, ६८-२०)
इसी सर्ग में आगे श्लोक २५ देखें, श्रीराम जी कहते हैं कि मुझे सीताहरण का उतना कष्ट नहीं है जितना इस गृद्ध के मेरी सहायता हेतु मरने का हो रहा है।
सीता हरणजं दुःखं न मे सौम्य तथा गतम् ।
यथा विनाशो गृध्रस्य मत्कृते च परंतप॥
इतना ही नहीं, राम जी ने उनका श्राद्ध भी किया। श्राद्ध में परिजन भी भोजन करते हैं, गृद्ध के परिजन, अन्य पक्षी भी आये। अब गीध के परिजन अन्य पक्षी और गीध शाकाहारी तो होंगे नहीं, इसीलिए उनके प्रजातिगत स्वभाव को देखते हुए राम जी ने रोहू मछली से उन्हें तृप्त किया।
रोहिमांसानि चोद्धृत्य पेशी कृत्वा महायशाः ।
शकुनाय ददौ रामो रम्ये हरितशाद्वले॥
यहां पक्षियों के लिए शकुन शब्द आया है जो उनका संस्कृत पर्यायवाची है। आपको स्मरण होगा, दुष्यंत शकुन्तला का प्रसङ्ग, शकुन यानी पक्षियों के द्वारा पालित होने से ही मेनकापुत्री का नाम शकुंतला पड़ा था।
राम जी ने जटायु के लिए जो तर्पण किया है, उस श्लोक में उनके लिए पक्षिराज और गृद्ध अर्थ वाले सम्बोधन स्पष्ट हैं, उसी सर्ग (६८) के अंतिम श्लोकों को देखें –
ततो गोदावतीं गत्वा नदीं नरवरात्मजौ ।
उदकं चक्रतुस्तस्मै गृध्रराजाय तावुभौ॥
शास्त्रदृष्टेन विधिना जले गृध्राय राघवौ।
स्नात्वा तौ गृध्रराजाय उदकं चक्रतुस्तदा॥
स गृध्रराजः कृतवान् यशस्करम्,
सुदुष्करम् कर्म रणे निपातितः ।
महर्षिकल्पेन च संस्कृतः तदा
जगाम पुण्यां गतिमात्मनः शुभाम् ॥
और भी सैकड़ों श्लोकों में ऐसे शब्द यह सिद्ध करते हैं कि जटायु कश्यपवंशी गृद्धराज ही थे।
कुतर्क १०) जहाँ तक जाम्बवान् के रीछ होने का प्रश्न है। यह भी एक भ्रान्ति है। रामायण में वर्णन मिलता है कि जब युद्ध में राम-लक्ष्मण मेघनाद के ब्रह्मास्त्र से घायल हो गए थे, तब किसी को भी उस संकट से बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा था। तब विभीषण और हनुमान् जाम्बवान् के पास परामर्श लेने गये। तब जाम्बवान् ने हनुमान् को हिमालय जाकर ऋषभ नामक पर्वत और कैलाश नामक पर्वत से संजीवनी नामक औषधि लाने को कहा था।
इसका सन्दर्भ रामायण के युद्ध कांड सर्ग ७४/३१-३४ में मिलता है। आप्त काल में बुद्धिमान और विद्वान जनों से संकट का हल पूछा जाता है। जैसे युद्धकाल में ऐसा निर्णय किसी अत्यंत बुद्धिवान और विचारवान व्यक्ति से पूछा जाता है। पशु-पक्षी आदि से ऐसे संकट काल में उपाय पूछना सर्वप्रथम तो संभव ही नहीं हैं। दूसरे बुद्धि से परे की बात है। इसलिए स्वीकार्य नहीं है।
इसलिए जाम्बवान का रीछ जैसा पशु नहीं अपितु महाविद्वान् होना ही संभव है।
इन सब वर्णन और विवरणों को बुद्धिपूर्वक पढ़ने से यह सिद्ध होता है कि हनुमान, बालि, सुग्रीव आदि विद्वान एवं बुद्धिमान् मनुष्य थे। उन्हें बन्दर आदि मानना केवल मात्र एक कल्पना है और अपने श्रेष्ठ महापुरुषों के विषय में असत्य कथन है।
समाधान १०) कुतर्की लेखक के बुद्धि से परे की बात है तो सनातन इतिहास क्या करे ? उलूक को भी सूर्य का अस्तित्व स्वीकार्य नहीं होता, बाकी कोई भ्रांति नहीं है। भ्रांति तो आर्य समाज फैला रहा है। यह बात सत्य है कि जाम्बवान् अत्यंत बुद्धिमान्, एवं पराक्रमी थे। किंतु वे मनुष्य योनि में नहीं थे। वे भी किंपुरुष ही थे साथ ही ब्रह्मदेव के अवतार थे, इसका श्लोक सहित प्रमाण पहले ही दे चुका हूँ। निःसन्देह किसी पशु पक्षी से आपत्ति का समाधान नहीं मांगा जाता किन्तु जाम्बवान् कोई पशु पक्षी नहीं थे, वे ब्रह्मदेव के अवतार, किंपुरुष ऋक्षयोनि के स्वामी थे। उनके लिए सर्वत्र ऋक्षराज शब्द ही आया है। अब ये मत कहना कि वन में रहने वाले को ऋक्ष भी कहते हैं। मतलब वन में रहने वाले मनुष्य को ऋक्ष वानर छोड़कर कुछ और नहीं लिख सकते थे ऋषिगण ? साथ ही अन्य लोग, जिनका मनुष्य होना प्रमाणित है, उनके लिए कहीं ऋक्ष या वानर नहीं लिख सकते थे ? राम जी की अयोध्या वापसी में उनके साथ असंख्य देवता, राक्षस, वानर और भालू, ये सब भी थे –
पुष्पकं रथमारुह्य वानरेश्वरसंयुतः।
सहितो वानरै: सर्वै: राक्षसेशसमन्वित:॥
वेष्टितैस्त्रिदशैश्चापि भल्लूकै: कोटिकोटिशः।
(महाभागवत, ४८-९+१०)
लेखक ने जिस प्रसंग का उल्लेख किया है, उससे भी, उसी सर्ग के श्लोकों में भालू यानी ऋक्ष होने का प्रमाण मिलता है, जाम्बवान् जी को ऋक्षपुंगव कहा गया है,
विभीषणवचः श्रुत्वा जाम्बवानृक्षपुङ्गवः।
एवं
ऋक्षवानरवीराणामनीकानि प्रहर्षय ।
साथ ही अन्य स्थानों पर भी देखें,
वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड (लंकाकांड) के सर्ग ३७ में व्यूहरचना के समय भगवान् अपने योद्धाओं को निम्न निर्देश देते हैं,
वानरेन्द्रश्च बलवानृक्षराजश्च जाम्बवान्।
राक्षसेन्द्रानुजश्चैव गुल्मे भवतु मध्यमे॥
न चैव मानुषं रूपं कार्यं हरिभिराहवे।
एषा भवतु नः संज्ञा युद्धेऽस्मिन्वानरे बले॥
वानरा एव नश्चिह्नं स्वजनेऽस्मिन्भविष्यति।
वयं तु मानुषेणैव सप्त योत्स्यामहे परान्॥
अहमेव सह भ्रात्रा लक्ष्मणेन महौजसा।
आत्मना पञ्चमश्चायं सखा मम विभीषणः॥
अर्थात्,
बलवान् वानरराज एवं ऋक्षराज, तथा राक्षसराज विभीषण बीच में रहेंगे। इस युद्ध में किसी भी हरि (बन्दर/भालू) के द्वारा मनुष्य का रूप धारण नहीं किया जाएगा, क्योंकि युद्ध में यही हमारी पहचान होगी। युद्ध में केवल मैं, लक्ष्मण, विभीषण और उनके चार मंत्री, यही सात लोग मनुष्य रूप धारण करके लड़ेंगे।
उपर्युक्त निर्देश देने का उद्देश्य यही था कि भगवान् जानते ही थे कि ये सभी वानर भालू वास्तव में दिव्ययोनि के देवता हैं, इसीलिए इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं, अतएव उन्होंने यह विशेष निर्देश दिया है।
हनुमान्, सुग्रीव, जाम्बवान् आदि विद्वान् तो थे किंतु मनुष्य नहीं थे, अपितु मनुष्यों से कई गुणा श्रेष्ठ दिव्य किंपुरुष योनि के थे। उन्हें बन्दर भालू कहना कल्पना नहीं है, अपितु उनके लौकिक दृष्टि से दिखने वाले स्वरूप का वैसा ही वर्णन करना है, जैसा कि ग्रंथकार ऋषियों ने बताया है। महाभारत आदि में भी हनुमानजी के भीम से भेंट और भीम के द्वारा पूंछ उठाने का प्रयास द्रष्टव्य है।
आर्य समाजियों को जो बात समझ में नहीं आती, उसे या तो मिलावटी कह देते हैं या फिर उनका अलग ही कुतर्कपूर्ण अर्थ कर बैठते हैं। मूल लेखक के लेख में दिए गए कुतर्क एवं श्लोकों में इतनी अधिक अशुद्धियां थीं कि मुझे शुद्ध करने में अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ा। जो व्यक्ति शुद्ध संस्कृत लिख नहीं सकता, केवल कॉपी पेस्ट जानता हो, उससे क्या आशा की जा सकती है ? जो आर्य समाज श्रीराम को भगवान् का अवतार ही न माने उससे क्या आशा करें हम ? ये लोग केनोपनिषत् में वर्णित ब्रह्म के यक्षरूपी साकार सगुण अवतरण पर मौन क्यों रहते हैं ? ये लोग छान्दोग्योपनिषत् में वर्णित विद्याओं की गणना में पुराण का नाम आने पर मौन क्यों रहते हैं ? 33 प्रकार के देवताओं पर अटकने वाले अनन्ता वै देवाः एवं अग्निर्देवता मन्त्र में क्यों चुप हो जाते हैं ? वस्तुतः संसार भर की जड़ता का मूल आर्य समाज ही है जो अपनी बुद्धि को विकसित करने के स्थान पर अनंत ज्ञान को ही दबा कर जैसे तैसे अपनी क्षुद्र बुद्धि में घुसाना चाहता है और इसमें असफल रहने पर उन बातों को ही मिलावटी कह देता है।
अंत में यही कहूंगा, लेखक का नाम भले “विवेक” हो किन्तु उसने ये लेख लिखकर अविवेक का ही प्रदर्शन किया है।
सद्भावो नास्ति वेश्यानां स्थिरता नास्ति सम्पदाम् ।
विवेको नास्ति मूर्खाणां विनाशो नास्ति कर्म्मणाम्॥
वेश्याओं में सद्भावना नहीं होती, सम्पत्ति में स्थिरता नहीं होती, मूर्खों में “विवेक” नहीं होता एवं कर्मयोगियों का विनाश नहीं होता।
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru