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क्या हनुमान् जी बन्दर हैं ?

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कुतर्क ४) सुंदरकांड (३०/१८-२०) में अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच में बैठी हुई सीता को अपना परिचय देने से पहले हनुमान जी सोचते हैं –
“यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझकर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरंभ कर देगी। इसलिए मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा।”

इस प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि हनुमान जी चारों वेद ,व्याकरण और संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के ज्ञाता भी थे।

समाधान ४) ये बात बिल्कुल सत्य है कि हनुमानजी ने ऐसा ही सोचा और व्यवहार किया था। किन्तु समझ में नहीं आता कि संस्कृत प्रमाण देने वाले लेखक ने यहां श्लोक क्यों नहीं लिखे ? क्यों केवल श्लोक संख्या लिखकर छोड़ दिया ? उन्हें अपनी पोल खुलने का भय था क्या ? या वे इस बात से आश्वस्त थे कि हिन्दू समाज तो ग्रंथ खोलकर जांच करने से रहा इसीलिए कुछ भी हिंदी अर्थ लिख दो। ठीक है, हम ही श्लोक और अर्थ लिख देते हैं।

अहं त्वति तनुश्चैव वानरश्च विशेषतः।
वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्॥
यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् ।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ।
वानरस्य विशेषेण कथं स्यादभिभाषणम्॥
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्।
मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता॥
(वाल्मीकीय रामायण, सुंदरकांड,३०/१७-२०)

(इन श्लोकों का अर्थ है कि श्रीहनुमानजी सोचते हैं) – विशेषकर के इस समय मैं वानर के शरीर में हूँ। इसीलिए मैं सामान्य मनुष्यों के समान सामान्य संस्कृत में बोलूंगा। यदि मैं द्विजाति (जिन्हें वेदाधिकार है) कि समान (वैदिक) संस्कृत में बोलूंगा तो मुझे रावण समझ कर सीताजी डर जाएंगी कि यह वानर होकर ऐसी संस्कृत कैसे बोल रहा है ? अतएव मैं सामान्य मनुष्यों की भांति ही अर्थयुक्त वाक्यों का प्रयोग करूँगा। मुझे इस समय इन्हें सांत्वना देने के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं करना चाहिए।

यह उपर्युक्त श्लोकों का वास्तविक अर्थ है, किन्तु लेखक ने यहां हिंदी अनुवाद में कैसा कुतर्क घुसाया है, उसे देखें। यदि हनुमानजी बन्दर नहीं, मनुष्य ही हैं तो पहले से ही मनुष्य होने से उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। लेखक तो वानर शब्द का अर्थ वनवासी मनुष्य लगाया करता है और सीताजी ने तो कई वर्ष तक विशुद्ध संस्कृत बोलने वाले वनवासी ऋषियों तथा लौकिक भाषा बोलने वाले भील-किरात वनवासियों के मध्य ही समय बिताए हैं तो फिर हनुमानजी चिंता किस बात की कर रहे हैं ? वे विशुद्ध बोलें या सामान्य, लेखक के अनुसार शरीर से तो मनुष्य ही थे, फिर चिंता क्यों ? ऊपर से लेखक ने अपने हिंदी अनुवाद में कहा कि “नागरिक संस्कृत”… ये नागरिक शब्द किस संस्कृत शब्द का अनुवाद है ? नागरिक और वनवासी की तो बात ही नहीं आयी श्लोक में। केवल मानवी वाणी की बात है, फिर ये बुद्धि कहाँ से उत्पन्न हो गयी। ऊपर से हनुमानजी ने स्वयं कहा कि मैं वानर शरीर में हूँ और मनुष्य के समान बोलूंगा तो समस्या हो जाएगी। अब प्रश्न यह है कि यदि लेखक के अनुसार वानर शब्द का अर्थ वनवासी मनुष्य लगा लें तो भी मनुष्य वनवासी हो या नगर का हो, उसके मानवी वाणी बोलने में कोई क्यों भयभीत होगा ? सीता जी तो तेरह वर्षों से वनवासियों के बीच ही रह रही थीं। समाधान यह है कि हनुमानजी वानर यानी बन्दर के रूप में ही थे और इसीलिए विशुद्ध संस्कृत बोलने से झिझक रहे थे।

उनके शास्त्रज्ञ होने की बात भी प्रमाणित है और किंपुरुष देव होने की बात भी। किन्तु उनके ज्ञानी होने से यह सिद्ध नहीं होता कि उनका शरीर मनुष्य का था। लेखक को पूर्वापर प्रसङ्ग में ही इसका प्रमाण मिल जाएगा। जब हनुमानजी सीता जी को खोज रहे थे, तब के कुछ श्लोक देखें –

वृतः परमनारीभिस्ताराभिरिव चन्द्रमा।
तं ददर्श महातेजास्तेजोवन्तं महाकपिः॥
(वाल्मीकीय रामायण ५-१८-२९)

अवेक्षमाणस्तु ततो ददर्श कपिकुञ्जरः।
रूपयौवनसंपन्ना रावणस्य वरस्त्रियः॥
(वाल्मीकीय रामायण ५-१८-२६)

ततः काञ्चीनिनादं च नूपुराणाम् च निस्वनम्।
शुश्राव परमस्त्रीणां स कपिर्मारुतात्मजः॥
तं चाप्रतिमकर्माणमचिन्त्यबलपौरुषम्।
द्वारदेशमनुप्राप्तं ददर्श हनुमान् कपिः॥
वाल्मीकीय रामायण (५-१८-२०+२१)

उपर्युक्त सभी श्लोकों में कपि शब्द हनुमानजी को बन्दर के देह वाला ही सिद्ध कर रहा है। ऐसे हज़ारों श्लोक वाल्मीकीय रामायण में ही मिल जाएंगे। लेखक उनका उल्लेख क्यों नहीं करता है ?

सीता जी से वार्तालाप प्रारम्भ करने से ठीक पहले का श्लोक देखें, यहां भी महाकपि शब्द आया है –

एवं बहुविधां चिन्तां चिन्तयित्वा महाकपिः ।
संश्रवे मधुरं वाक्यं वैदेह्या व्याजहार ह॥
(वाल्मीकीय रामायण ५-३१-०१)

इसी प्रसङ्ग के ठीक बाद जब उन्होंने सीताजी के समक्ष अपना वास्तविक रूप प्रदर्शित किया है, उसमें मनुष्य की आकृति न होकर बन्दर की आकृति ही स्पष्ट है, वाल्मीकीय रामायण के सुंदरकांड का अध्याय ३२ का अवलोकन करें –

जब सीता जी के सामने हनुमानजी आये तो हरिरूप से आये। शास्त्रों में कहीं किसी वनवासी मनुष्य के लिए हरि शब्द नहीं आया है, किन्तु बन्दर के पर्यायवाची के रूप में आया है –

सा तं दृष्ट्वा हरिश्रेष्ठं विनीतवदुपस्थितम्॥

इसके बाद देखें –

सा वीक्षमाणा पृथुभग्नवक्त्रं शाखामृगेन्द्रस्य यथोक्तकारम् ।
ददर्श पिङ्गाधिपतेरमात्यं वातात्मजं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ॥

यहां हनुमानजी के लिए पांच विशेषण हैं –
पृथुभग्नवक्त्र – जिसका चेहरा ठुड्डी के पास टूटा हुआ हो।
शाखामृगेन्द्र – शाखामृग का राजा (ऊपर प्रथम प्रश्न में बता चुका हूँ कि शाखामृग बन्दर का संस्कृत पर्यायवाची शब्द है)
पिङ्गाधिपतेरमात्य – पिङ्ग के राजा के मंत्री (पीला-भूरा रंग को पिङ्ग कहते हैं, यह बन्दर का पर्यायवाची है)
वातात्मज – वायुपुत्र
बुद्धिमतां वरिष्ठ – बुद्धिमानों में श्रेष्ठ।

ये सभी विशेषण हनुमानजी के देवपुत्र यानि दिव्ययोनि के ऐसे बन्दर के रूप में होने के प्रमाण हैं जो बहुत अधिक बुद्धिमान् है।

अब उसी अध्याय और प्रसङ्ग में आगे देखिए –
अनेन चोक्तं यदिदं ममाग्रतो वनौकसा तच्च तथा ऽस्तु नान्यथा।
इस वनौका के द्वारा जो कहा गया वह सत्य हो …

वनौका भी बन्दर को ही कहते हैं, ऊपर प्रथम प्रश्न में शब्दकल्पद्रुम का प्रमाण दिया है। हालांकि श्रीमद्भागवत में वनवासी मनुष्य या ऋषियों के लिए वनौका शब्द भी आया है, उदाहरण –

धर्म्मोऽग्निः कश्यपः शक्रो मुनयो ये वनौकसः ।
चरन्ति दक्षिणीकृत्य भ्रमन्तो यत् सतारकाः॥

किन्तु स्मरण रहे, ऊपर के प्रसङ्ग में शाखामृग, कपि, हरि ये सब शब्द भी हैं तो यहां वनौका का अर्थ बन्दर ही होगा, क्योंकि वनवासी ऋषियों के लिए शाखामृग, कपि आदि शब्द कहीं नहीं आये हैं। हनुमानजी यदि वनवासी मनुष्य थे तो फिर उनके लिए एक स्थान पर भी मानव का सामान्य पर्यायवाची क्यों नहीं आया, सर्वत्र बन्दर के ही पर्यायवाची ही क्यों आये ?

अब वाल्मीकीय रामायण के सुंदरकांड का इसीलिए प्रसङ्ग के अध्याय ३४ का अवलोकन करें। यहाँ प्रथम एवं अष्टम श्लोक में निम्न वाक्य है जहां हनुमानजी को हरियूथप कहा गया है, इसका अर्थ है हरि के समुदाय का नायक। हरि का अर्थ बन्दर भी होता है, पूर्व में बता चुका हूँ –

तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा हनुमान् हरियूथपः।

आगे हनुमानजी बताते हैं कि कैसे हरीश्वर (हरि के समुदाय के स्वामी) एवं नरेश्वर (मनुष्यों के समुदाय के स्वामी) में मित्रता हुई, क्योंकि सीता जी विश्वास नहीं कर रही थीं। क्यों विश्वास नहीं कर रही थीं भला ? यदि वानर का अर्थ वनवासी मनुष्य है तो समस्या क्या थी ? पहले भी वन में रहने वाले निषादराज गुह आदि राजाओं से राम जी की मित्रता थी ही, फिर कैसे सन्देह की बात ? सन्देह इसीलिए क्योंकि वानर का अर्थ यहां बन्दर ही है और बन्दर का पर्यायवाची हरि है। इसीलिए यहां अलग से हरीश्वर और नरेश्वर शब्द का वर्णन करना पड़ा, इसीलिए सन्देह भी हुआ कि मनुष्य और बन्दर में कैसे मित्रता हुई और इसीलिए हनुमानजी को पूरी कथा सुनानी पड़ी।

ततस्तौ प्रीतिसम्पन्नौ हरीश्वरनरेश्वरौ।
परस्परकृताश्वासौ कथया पूर्ववृत्तया॥

आगे सर्ग ३७ में सीता जी हनुमानजी से कहती हैं, जिसमें कुछ विशेष सम्बोधन हैं –

विधिर्नूनमसंहार्थः प्राणिनां प्लवगोत्तम।
साथ ही,
वर्तते दशमो मासो द्वौ तु शेषौ प्लवङ्गम।
एवं
शरजालांशुमाञ्छूरः कपे रामदिवाकरः।
अन्यच्च,
तदेव खलु ते मन्ये कपित्वं हरियूथप।

इसमें प्लवगोत्तम, प्लवंगम, कपि, हरियूथप आदि शब्द आये हैं जो सब के सब एक स्वर में कहते हैं कि हम वानर यानी बन्दर के पर्यायवाची ही हैं। सीताजी कहती भी हैं कि तुम मेरे कष्ट के निवारण के लिए बिना युद्ध के अभी ही मुझे पीठ और बैठाकर श्रीरामजी के पास ले जाना चाहते हो इसे मैं तुम्हारे कपि (बन्दर) होने के कारण हुई चंचलता समझती हूँ। फिर हनुमानजी ने उन्हें जब अपना विराट रूप दिखाया तो वहां भी उनके लिए कुछ विशेषण आये हैं,

इति सञ्चिन्त्य हनुमांस्तदा प्लवगसत्तमः।
एवं
स तस्मात् पादपाद्धीमानाप्लुत्य प्लवगर्षभः।

यहाँ प्लवगसत्तम एवं प्लवगर्षभ शब्द भी बन्दर के ही पर्यायवाची हैं। हनुमानजी का रूपदर्शन करें –

हरिः पर्वतसङ्काशस्ताम्रवक्त्रो महाबलः ।
वज्रदंष्ट्रनखो भीमो…
हरि (बन्दर), पर्वत के समान विशाल, तांबे के समान लाल मुंह वाले, महाबली, वज्र के समान कठोर और तीखे नाखून एवं दांत वाले, भयानक ….
ये सब कौन से वनवासी मनुष्य के स्वरूप हैं ? न शब्द का अर्थ मनुष्य बता रहा है, न स्वरूप का विवरण …

कुतर्क ५) हनुमान् जी के अतिरिक्त अन्य वानर जैसे कि बालि पुत्र अंगद का भी वर्णन वाल्मीकि रामायण में संसार के श्रेष्ठ महापुरुष के रूप में किष्किन्धा कांड ५४/२ में हुआ है। हनुमान् बालि पुत्र अंगद को अष्टांग बुद्धि से सम्पन्न, चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे।

बुद्धि के यह आठ अंग हैं- सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक ठीक समझना, विज्ञान व तत्वज्ञान।

चार प्रकार के बल हैं- साम , दाम, दंड और भेद।

राजनीति के चौदह गुण हैं- देशकाल का ज्ञान, दृढ़ता, कष्टसहिष्णुता, सर्वविज्ञानता, दक्षता, उत्साह, मंत्रगुप्ति, एकवाक्यता, शूरता, भक्तिज्ञान, कृतज्ञता, शरणागत वत्सलता, अधर्म के प्रति क्रोध और गंभीरता।

भला इतने गुणों से सुशोभित अंगद बन्दर कहाँ से हो सकते हैं ?

कुतर्क ६) वेदज्ञ और राजमन्त्री हनुमान जी :-

सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः ।
तमेव कांक्षमाणस्य ममान्तिकमिहागतः॥
नाऋग्वेद विनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः ।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितम्॥
(वाल्मिकीय रामायण, किष्किन्धा काण्ड सर्ग -३ )

अर्थात् :- हे लक्ष्मण ! यह ( हनुमान जी ) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं । जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है, वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है ।

शब्दशास्त्र, व्याकरण के पण्डित हनुमान जी :-

नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।
बहुव्याहरतानेन न किञ्चिदपशब्दितम्॥
( वाल्मिकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग -३ )

अर्थात् :- इन्होंने निश्चित ही सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वार्तालाप में एक भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है ।

श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटुरूपिणम्।
शब्दशास्त्रमशेण श्रुतं नूनमनेकधा॥
अनेकभाषितं कृत्स्नं न किञ्चिदपशब्दितम् ।
ततः प्राह हनुमन्तं राघवो ज्ञानविग्रहः॥
( वल्मिकी रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग-१ )

अर्थात् :- राम ने कहा “हे लक्षमण ! इस ब्रह्मचारी को देखो । अवश्य ही इसने सम्पूर्ण व्याकरण कई बार भली प्रकार से पढ़ा है । देखो ! इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई ।

समाधान ५-६) अंगद जी स्वयं भी हनुमानजी के समान ही किंपुरुष हैं, उनके पिता बालि भी इंद्रपुत्र होने से किंपुरुष देवयोनि के हैं, माता तारा भी कामरूपिणी हैं तो उनका दिव्य गुणों से सम्पन्न होने में कैसा आश्चर्य ?

कुतर्क षष्ठ के अंतिम श्लोक प्रमाण में उक्त श्लोक मुझे वाल्मीकीय रामायण के किष्किंधाकांड के सर्ग १ में कहीं नहीं मिले। वैसे कुतर्क षष्ठ का समाधान वैसे तो तीसरे कुतर्क में कर ही चुका हूँ, फिर भी कुछ बातें हैं जो अतिरिक्त में जोड़ देना चाहूंगा। हनुमानजी ने अपने कपि रूप को त्याग कर भिक्षु रूप बनाया था, ऐसा वर्णन उसी प्रसङ्ग में स्पष्ट है। कपि का कोई अर्थ वनवासी मनुष्य से नहीं लगाया जा सकता।

कपिरूपं परित्यज्य हनुमान् मारुतात्मजः ।
भिक्षुरूपं ततो भेजे शठबुद्धितया कपिः॥
(वाल्मीकीय रामायण, किष्किंधाकांड, ०३-०२)

अब समस्या यह है जो पहले से मनुष्य है वो कपि रूप क्यों छोड़ेगा ? सीधे लिखते कि भिक्षु का रूप बनाकर गए। रूप बदलने से पहले कपि रूप को छोड़ा, ऐसा क्यों लिखा ? मतलब हनुमानजी मनुष्यरूप में नहीं थे। अब यदि कहें कि सुग्रीव आदि के साथ छिप कर रहते थे इसीलिए नकली बन्दर का रूप बनाया रहा, उसे ही छोड़ दिया तो ध्यान रखें कि नकली रूप बनाने का उद्देश्य बालि से बचना ही होता। और जहां दो अपरिचित धनुर्धरों के बालिपक्षीय होने का सन्देह हो वहां नकली रूप को छोड़ना कौन सी बुद्धिमत्ता है ? और यदि कहें कि बन्दर का एक नकली रूप छोड़ा तो भिक्षु का दूसरा नकली रूप बनाया भी तो, फिर भी यह बात संगत नहीं, क्योंकि श्लोक के अंत में हनुमानजी के लिए पुनः कपि शब्द आया है। यदि मनुष्य होते तो कहते कि मनुष्य थे, कपि (बन्दर) बन कर रह रहे थे, जसे छोड़कर भिक्षु का वेश बनाया। किन्तु ऐसा नहीं लिखा श्लोक में, अपितु लिखा कि कपि ने कपि रूप छोड़कर भिक्षु रूप धारण किया।

आगे हनुमानजी का भिक्षु रूप छोड़कर वापस वानर/कपि (बन्दर) रूप धारण करने का वर्णन भी है। श्लोक में वानर और कपिकुंजर दोनों शब्द है, अर्थ बन्दर ही है।

भिक्षुरूपं परित्यज्य वानरं रूपमास्थितः ।
पृष्ठमारोप्य तौ वीरौ जगाम कपिकुङ्जरः॥
(वाल्मीकीय रामायण, ४-४-३४)

कुतर्क ०७) अंगद की माता तारा के विषय में मरते समय किष्किन्धा कांड १६/१२ में बालि ने कहा था कि-

“सुषेण की पुत्री यह तारा सूक्ष्म विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिह्नों को समझने में सर्वथा निपुण है। जिस कार्य को यह अच्छा बताए, उसे नि:शंक होकर करना। तारा की किसी सम्मति का परिणाम अन्यथा नहीं होता।”

ऐसे गुण विशेष मनुष्यों में ही संभव है।

समाधान ७) यहां भी लेखक महोदय ने मूल श्लोक न देकर केवल हिंदी अनुवाद और श्लोक संख्या दी है। किंतु उपर्युक्त सन्दर्भ में ऐसे भाव वाला कोई श्लोक मुझे नहीं मिला। अपितु उस अध्याय में या उसके आगे पीछे के दो तीन अध्यायों तक भी बालि के ऐसा कहने का कोई प्रसङ्ग ही नहीं है। केवल युद्ध का वर्णन है।

हां, मैं सहमत हूँ कि बाली ने तारा की नीतिनिपुणता की प्रशंसा की है और लेखक का हिंदी अनुवादित भाव निम्न श्लोकों का है,

सुषेणदुहिता चेयमर्थसूक्ष्मविनिश्चये ।
औत्पातिके च विविधे सर्वतः परिनिष्ठिता॥
यद्येषा साध्विति ब्रूयात् कार्यं तन्मुक्तसंशयम् ।
न हि तारामतं किंचिदन्यथा परिवर्तते॥
(वाल्मीकीय रामायण ४-२२-१३+१४)

यहां ध्यातव्य है कि निश्चय ही ये गुण किसी सामान्य बन्दर के नहीं हो सकते किन्तु मैं सिद्ध कर चुका हूँ कि ये लोग सामान्य पशुयोनि के बन्दर न होकर दिव्य किंपुरुष योनि के वानराकृति देवता थे। अतएव ये गुण उनमें होने का कोई संशय नहीं है। इतना ही नहीं, इन प्रसंगों में भी,

हते तु वीरे प्लवगाधिपे तदा
प्लवंगमाः तत्र न शर्म लेभिरे ।
वने चराः सिंह युते महावने
यथा हि गावो निहते गवां पतौ॥

इस जैसे अनेकों श्लोकों में आये प्लवगाधिप और प्लवंगम शब्द बन्दर के ही पर्यायवाची हैं।