आर्य समाज प्रारम्भ से ही अपनी मनमानी और कुत्सित मानसिकता का परिचय देता रहा है। जो बातें इनके मत को पुष्ट करती हैं, मात्र उन्हें ही प्रामाणिक मानते हैं और शेष जो बातें इनके मस्तिष्क की क्षमता के बाहर होती हैं, उन्हें ये मिलावटी कहते हैं। दयानन्द सरस्वती से पूर्व इस देश में ग्रंथों के प्रक्षिप्त होने या अप्रामाणिक होने का कोई प्रसङ्ग नहीं दिखता है। इसीलिए जर्मन, रूसियों एवं अंग्रेजों ने थियिसोफिकल सोसाइटी के माध्यम से आर्य समाज की स्थापना और विस्तार करवा कर इस नए भ्रम को प्रोत्साहित किया।
उस समय के तात्कालिक विद्वानों ने बिना किसी विशेष परिश्रम के आर्य समाज का खंडन कर दिया किन्तु बार बार खंडित होने पर भी ये एक ही कुतर्क को दुहराते रहते हैं, फलतः शास्त्रज्ञान से अनभिज्ञ सामान्य जनता भ्रमित होती रहती है। हद तो तब हो जाती है जब आर्य समाजी एक ही ग्रंथ की एक बात को प्रामाणिक मानते हैं और जब वही ग्रंथ उस विषय में कोई ऐसी बात कहता है जो इनकी लौकिक समझ से परे है, तो ये उसे मिलावटी घोषित कर देते हैं।
इसी क्रम में हनुमानजी के बंदर शरीर में होने के विषय में ये लोग पर्याप्त विवाद उत्पन्न कर चुके हैं। आज ऐसे ही एक भ्रामक लेख का खंडन प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो डॉ विवेक आर्य नामक आर्य समाजी के द्वारा प्रसारित है। नीचे कुतर्कपूर्ण लेख और साथ ही क्रमशः उसका निवारण उपलब्ध है :-
कुतर्क १) पहले वानर शब्द पर विचार करते हैं। सामान्य रूप से हम “वानर” शब्द से यह अभिप्रेत कर लेते हैं कि वानर का अर्थ होता है “बन्दर”, परन्तु अगर इस शब्द का विश्लेषण करें तो वानर शब्द का अर्थ होता है वन में उत्पन्न होने वाले अन्न को ग्रहण करने वाला। जैसे पर्वत अर्थात् गिरि में रहने वाले और वहाँ का अन्न ग्रहण करने वाले को गिरिजन कहते हैं। उसी प्रकार वन में रहने वाले को वानर कहते है। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति , प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।
खंडन १) सर्वप्रथम यह बताएं कि इस धारणा का औचित्य क्या है ? वन में रहने वाला और वहां के अन्न को ग्रहण करने वाला वानर ही क्यों कहायेगा ? हालांकि शब्दकल्पद्रुम का वचन है, यद्बा वानं वने भवं फलादिकं रातीति, इस व्याख्या से वन्य फलों का भक्षण करने वाला वानर कहलाता है। किंतु इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि वन में रहकर वन्य फल को ग्रहण करने वाले “मनुष्य” के लिए ही वानर शब्द आया है ? फिर यही शब्द हाथी, हिरण, ऋषि मुनि, वनवासी भील आदि के लिए कभी प्रयुक्त क्यों नहीं हुआ ? वानरश्रेष्ठ वाल्मीकि, या वानरराज अगत्स्य का कभी नाम सुना आपने ?
आपने गिरिजन शब्द से इसे पुष्ट करने का प्रयास किया तो फिर हमें यह बताएं कि गिरिजन की भांति हम वनजन या वनवासी क्यों नहीं कह सकते ? “वानर” ही क्यों कहें ? ये शब्द बन कैसे गया ? यदि गिरि में उत्पन्न अन्न को ग्रहण करने वाले के लिए जो शब्द गिरिजन है, उसमें प्रथम स्थान का नाम है, और दूसरे जन शब्द लगा है। तो फिर वन के अन्न को ग्रहण करने वाले में “वानर” शब्द कहाँ से आ गया ? उसे तो वनजन होना चाहिए था। यदि जन शब्द से अन्न ग्रहण करने वाले का अर्थ निकलता है (हालांकि इसका कौन सा वैयाकरणीय आधार लगा रहे हैं, ये स्पष्ट नहीं) तो फिर हरिजन, पुरजन, सज्जन, दुर्जन आदि शब्दो का अर्थ कहाँ के अन्न को ग्रहण करने वाले से लगाएंगे ?
वानर शब्द से यदि किसी विशेष जाति, प्रजाति आदि का बोध यदि नहीं होता तो दो हज़ार वर्ष पूर्व के लिखे गए अमरकोष में कपि, प्लवङ्ग, प्लवग, शाखामृग, वलीमुख, मर्कट, कीश, वनौका आदि शब्द वानर के पर्यायवाची के रूप में क्यों आये हैं ? ऐसे ही जटाधर कोष एवं शब्दरत्नावली में मर्क, प्लव, प्रवङ्ग, प्रवग, प्लवङ्गम, प्रवङ्गम, गोलाङ्गूल, कपित्थास्य, दधिशोण, हरि, तरुमृग, नगाटन, झम्पी, झम्पारु, कलिप्रिय, किखि, शालावृक आदि शब्द भी वर्णित हैं। इन सबों में कहीं भी इनके वनवासी मनुष्य होने का कोई संकेत नहीं है। ऊपर से, ग्यारहवें अध्याय के पक्षी एवं पशुहत्या के प्रायश्चित्त प्रसङ्ग में मनुस्मृति कहती है,
हत्वा हंसं वलाकाञ्च वकं बर्हिणमेव ।
वानरं श्येनभासौ च स्पर्शयेत् ब्राह्मणाय गाम् ॥
यहां भी यह शब्द बन्दर के अर्थ में ही आया है। कहीं भी “वनवासी मनुष्य” के लिए वानर शब्द नहीं आया है। वन के अन्न को भक्षण करने का कार्य तो बन्दर भी करते ही हैं, तो उनके वानर कहाने में क्या आपत्ति हो रही है ?
जाम्बवान् जी समुद्र लंघन से पूर्व प्रबोधित करते हुए हनुमानजी को कहते हैं, कि आप कपियों के राजा के समान हैं –
दाक्ष्य विक्रमसंपन्नः कपिराज इवापरः।
(वाल्मीकीय रामायण ४-६६-३१)
इसी अध्याय में अनेकों स्थान पर महाकपि आदि सम्बोधन भी आया है। इन्द्र ने वज्रप्रहार करके आंजनेय महाप्रभु की मुखाकृति विकृत कर दी थी इसीलिए हनुमान् नाम पड़ा। वाल्मीकीय रामायण में ही इन्द्र का वचन है,
मत्करोत्सृष्टवज्रेण हनुरस्य यथा हतः।
नाम्ना वै कपिशार्दूलो भविता हनुमानिति॥
यहां स्पष्ट कपिशार्दूल शब्द आया है, यानी बंदरों में सिंह के समान श्रेष्ठ। कपि शब्द का अर्थ तो वन का अन्न ग्रहण करने वाला नहीं लगा सकते न।
कुतर्क २) सुग्रीव, बालि आदि का जो चित्र हम देखते हैं उसमें उनकी पूंछ लगी हुई दिखाई देती हैं। परन्तु उनकी स्त्रियों के कोई पूंछ नहीं होती ? नर-मादा का ऐसा भेद संसार में किसी भी वर्ग में देखने को नहीं मिलता। इसलिए यह स्पष्ट होता है कि हनुमान आदि के पूंछ होना केवल एक चित्रकार की कल्पना मात्र है।
खंडन २) यह चित्रकार की कल्पना नहीं है, अपितु उसका शास्त्रीय दृष्टिकोण है। सिंह के अयाल (गर्दन के बाल) होते हैं, सिंहनी के नहीं। क्या नर मादा का ऐसा भेद संसार में व्यापकता से दिखता है ? मोर और मोरनी, मुर्गा और मुर्गी आदि में भी व्यापक भेद देखने को मिलता है। ऐसे ही किंपुरुष योनि के योनियों के भी ऐसे ही भेद होते हैं। अब किंपुरुष किसे कहते हैं ? जिसे देखकर उसके व्यवहार से उसके पुरुष होने का भ्रम हो किन्तु शरीर से वह भिन्न योनि का हो, वह किंपुरुष है। हालांकि कुत्सित पुरुष या किन्नर को भी किंपुरुष कहते हैं। किन्तु यहां किंपुरुष का अर्थ दिव्य योनि विशेष से है जो बंदर, भालू, पक्षी आदि के समान दिखने पर भी गुणों में दिव्य हों।
विभिन्न योनियों का नाम गिनाते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उद्धवगीता में कहते हैं –
तेभ्यः पितृभ्यस्तत् पुत्राः देवदानवगुह्यकाः।
मनुष्याः सिद्धगन्धर्वाः सविद्याधरचारणाः॥
किन्देवाः किन्नराः नागाः रक्षः किंपुरुषादयः।
बह्व्यः तेषां प्रकृतयः रजःसत्त्वतमोभुव:॥
साथ ही बताते हैं किंपुरुष वर्ग में सर्वश्रेष्ठ हनुमान् जी हैं एवं विद्याधर वर्ग में सर्वश्रेष्ठ सुदर्शन जी हैं। किंपुरुष एवं विद्याधर, दोनों देवयोनियां हैं।
किंपुरुषाणां हनुमान् विद्याध्राणां सुदर्शनः॥
लेखक ने सम्भवतः किंपुरुष शब्द का नाम सुना भी न हो, इसीलिए भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं। किंपुरुष वर्ग के सदस्यों के लिए एक अलग से किंपुरुषवर्ष नाम का दिव्य देश भी शास्त्रों में वर्णित है, जिसका अधिपति हनुमानजी को ही बताया गया है और वे श्रीराम जी की उपासना में लीन रहते हैं।
किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः परमभागवतो हनुमान्सह किम्पुरुषैरविरत-भक्तिरुपास्ते।
साथ ही,
हनुमत्पूजितो रामः नाथः किंपुरुषस्य तु ।
भद्राश्वाद्दक्षिणे वर्षे भारताख्यो गुणाधिकः॥
(प्रकाश संहिता)
आर्यसमाज आचार्य पतंजलि कृत योगदर्शन को तो मानता ही है। उसमें व्यासभाष्य – तत्ववैशारदी योगवार्तिककार भी किंपुरुष नामक देवयोनि एवं उनके रहने लिए स्थायी निवास किंपुरुषवर्ष का नाम गिनाते हैं।
…तत्र पाताले जलधौ पर्वतेष्वेतेषु देव-निकाया असुर-गन्धर्व-किन्नर-किम्पुरुष-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाचापस्मारकाप्सरो-ब्रह्म-राक्षस-कूष्माण्ड-विनायकाः…
…तदन्तरेषु त्रीणि वर्षाणि नव-नव-योजन-साहस्राणि हरिवर्षं किम्पुरुषं भारतम्…
वेदोक्त कल्पग्रंथ में भी इनका वर्णन है –
गौरो गवयः शरभ उष्ट्रो मायुः किंपुरुष इत्यनुस्तरणाः
(शांखायन श्रौतसूत्रम्)
सुप्रसिद्ध संस्कृत कोष वाचस्पत्यम् का वचन है कि देवताओं की ऐसी योनियां जो पशु के समान दिखें, किंपुरुष हैं – किम्पुरुषे देवयोनिभेदे अश्ववदनहयमुखादयोऽप्यत्र।
यहां इस महत्वपूर्ण तथ्य को भूलना नहीं चाहिए कि जहां लेखक हनुमानजी आदि को सामान्य बंदर स्वीकार नहीं कर रहे हैं और मनुष्य सिद्ध करना चाह रहे हैं वहीं वे न मनुष्य हैं, न बंदर। वे किंपुरुष हैं जो बन्दर की आकृति में है। किंपुरुष बंदर, भालू, पक्षी, सर्प, घोड़ा आदि किसी भी योनि के जैसे दिख सकते हैं। इसीलिए नर मादा आदि का दैहिक भेद भी दिखता है। अब सन्देह है कि भेद दिखता ही क्यों है ? चूंकि किंपुरुष एक देवयोनि है, इसीलिए वह दिव्य सिद्धियों से युक्त है। दिव्य सिद्धि वाले लोग इच्छानुसार रूप धारण करने में सक्षम होते हैं।
वाल्मीकीय रामायण में ही यह प्रसङ्ग देखा जाए, जहां हनुमानजी की माता अंजना का वर्णन है। वे पहले पुंजिकस्थला नाम की अप्सरा थीं जो श्रापवश कपिभाव को प्राप्त हो गयी थीं, वानरराज कुंजर की पुत्री होकर कपिराज केसरी से विवाह हुआ, किन्तु दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण वे मनुष्य का रूप धारण करके ही रहती थीं।
अप्सराप्सरसाम् श्रेष्ठा विख्याता पुंजिकस्थला ।
अंजनेति परिख्याता पत्नी केसरिणो हरेः ॥
विख्याता त्रिषु लोकेषु रूपेणाप्रतिमा भुवि ।
अभिशापादभूत्तात कपित्वे कामरूपिणी ॥
दुहिता वानरेन्द्रस्य कुंजरस्य महात्मनः ।
मानुषं विग्रहं कृत्वा रूपयौवनशालिनी ॥
(वाल्मीकीय रामायण – ४-६६-८×१०)
यहां ध्यान दें, प्रथम श्लोक में उनके पति केसरी के लिए हरि शब्द आया है जो अमरकोष आदि के अनुसार वानर शब्द का पर्यायवाची है। दूसरे श्लोक में कपि शब्द भी आया है और यह भी वानर शब्द का ही पर्यायवाची है। तीसरे श्लोक में वर्णन है कि वे रूप और यौवन से युक्त मनुष्य की आकृति बना कर रहती थीं। क्या कपि और हरि शब्द का प्रयोग किसी वनवासी मनुष्य के लिए कहीं प्रयुक्त होता है ? फिर क्या आवश्यकता थी ग्रंथकार को कि केवल एक विशेष समुदाय या परिवार के लिए ही ये सब शब्द लगाए ? एक बार भी कहीं मनुष्य, मानव, नर, आदि मानवीय शब्द क्यों नहीं लगाए ? साथ ही अन्य वनवासी मनुष्यों के लिए कपि, हरि, वानर आदि शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया ? यदि अंजना और साथ ही शेष वानर, मनुष्य ही थे तो हरि और कपि शब्द क्यों आया ? अंजना को अलग से मनुष्य जैसा दिखने के लिए वेष क्यों बनाना पड़ा ? लेखक यदि थोड़ा “विवेक” लगाएं तो भ्रम का निवारण हो जाएगा।
कुतर्क ३) किष्किन्धाकांड (३/२८-३२) में जब श्रीरामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान् से भेंट हुई तब दोनों में परस्पर बातचीत के पश्चात रामचंद्र जी लक्ष्मण से बोले-
नानृग्वेद विनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः ।
नासाम वेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम् ॥
ऋग्वेद के अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं है तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया है, क्योंकि इतने समय तक बोलने में इन्होंने किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है। संस्कारसंपन्न, शास्त्रीय पद्धति से उच्चारण की हुई इनकी वाणी ह्रदय को हर्षित कर देती है।
समाधान ३) निश्चित ही यह सम्भव है, चूंकि मैं पूर्व में ही हनुमानजी को किंपुरुष बता चुका हूँ, साथ ही ग्रंथों में उनके सूर्यदेव के पास विधिवत् शिक्षा ग्रहण करने का वर्णन है तो यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। सामान्य लौकिक बन्दर ऐसा नहीं कर सकता, न ही कोई सामान्य वनवासी मनुष्य, अपितु यह कोई श्रेष्ठ तत्व हैं, ऐसा ही श्रीराम जी का भाव है। इससे भी हनुमानजी के बन्दर देह में होने का कोई विरोधाभास नहीं होता क्योंकि वे किंपुरुष हैं।