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शास्त्रों में सद्गुरु की क्या पहचान बताई गई है ?

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  1. लोक में गुरु की बड़ी महत्ता बताई गई है। सनातन धर्म में गुरु और ईश्वर में अभेदबुद्धि रखने का निर्देश है। किन्तु आजकल गुरु के नाम और पद का बहुत दुरुपयोग होने लगा है। गुरु की पहली अनिवार्यता :-
    ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो यथावत् साङ्गवेदवित्॥
    (विश्वामित्र संहिता)

ब्राह्मणी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा जन्म हो तथा अंगों सहित वेद का विद्वान् हो।

(आगे और भी बहुत सी अनिवार्यता बताई गई है)

ब्राह्मणः सत्वसम्पन्न: शुचिर्दक्षो जितेन्द्रिय:।
समर्थोऽधीतवेदश्च सर्व तंत्रार्थवित् सुधी:॥
मायमतत्वविद्भक्तस्त्यागी नित्यं प्रियंवद:।
एवमादिगुणैश्चान्यैर्युक्त: आचार्यसत्तम:॥

ऐसा ब्राह्मण, जो सात्विक हो, शुद्ध, निपुण, जितेन्द्रिय, समर्थ, वेदज्ञ, तंत्रवेत्ता, बुद्धिमान, मायावाद से रहित, भक्त, त्यागी, सदैव मधुरभाषी होना, आदि गुणों से युक्त हो वही श्रेष्ठ गुरु है।
(पञ्चप्रश्नगुह्यतंत्र, षष्ठ पटल, ३-४)

गुरौ मनुष्यबुद्धिं च मन्त्रे चाक्षरबुद्धिताम्।
न कुर्याद्यन्त्रमूर्त्यादौ शिलाबुद्धिं कदाचन॥
(परमानन्द तंत्र, त्रयोदश उल्लास)

गुरु में मनुष्यबुद्धि, मन्त्र में अक्षरबुद्धि और यंत्र, देवमूर्ति आदि में पाषाण बुद्धि कभी नहीं करना चाहिए।

मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो:।
बंधाय विषयासक्तिः मुक्त्यै कृष्णेऽनुयोजनम्॥
(रहस्याम्नाय वैहायसी संहिता, तृतीय अवतार)

मन ही मनुष्यों के बंधन एवं मोक्ष का कारण है। बंधन हेतु सांसारिक विषयों में आसक्ति करनी चाहिए तथा मुक्ति के लिए श्रीकृष्ण में लगाना चाहिए।

अलं वेदै: पुराणैश्च स्मृतिभिः संहितादिभिः।
किमन्यैर्बहुभिस्तन्त्रै: ज्ञात्वैकं सर्व-विद् भवेत्।
(महानिर्वाणतंत्र, चतुर्दश पटल)

वेदों को पढ़ कर क्या ? पुराण, स्मृति, संहिता आदि से भी क्या ? अथवा नाना प्रकार के तन्त्रों से भी क्या ?? उस एक (ब्रह्म) को जानकर ही व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है।

(यहाँ किसी की निंदा नहीं की गयी है, अपितु ब्रह्मविद्या को ही सर्वोच्च और सबसे पूर्ण बताया गया है। वेदों के सब अधिकारी नहीं हैं। पुराण कथाओं से पूर्ण हैं और स्मृतियां सामाजिक व्यवस्था पर ही केन्द्रित हैं। संहिताएं अपने अपने मत से मात्र सम्प्रदाय विवेचन करती हैं तथा तन्त्र भी आपस में बहुत उलझन और विरोधाभास से भरे हैं। इसीलिए इनमें व्यर्थ विवाद न करते हुए मात्र ब्रह्मोपादेय ज्ञान को ही सार समझ कर ग्रहण करना चाहिए, यह उक्त श्लोक का भाव है।)

आस्तिकोऽथ शुचिर्दक्षो द्वैतहीनो जितेन्द्रिय:।
ब्रह्मिष्ठो ब्रह्मवादी च ब्राह्मी ब्रह्मपरायण:॥
सर्वहिंसाविनिर्मुक्त: सर्वप्राणिहिते रतः।
सोऽस्मिन् शास्त्रेऽधिकारी स्यात् तदन्यत्र न साधक:॥
(गन्धर्व तंत्र, द्वितीय पटल)

आस्तिक, शुद्ध, निपुण, अद्वैती, जितेन्द्रिय, ब्रह्म में स्थित, ब्रह्मवाद का अनुयायी, स्वयं ब्रह्मरूप एवं ब्रह्मभावाश्रित, सभी प्रकार ही हिंसा से मुक्त और सभी प्राणियों के हित में रत व्यक्ति तंत्रशास्त्र का अधिकारी है, अन्य नहीं।

अब शंका हो सकती है कि कदम कदम पर जो मांस मदिरा की बात तंत्रों में है, उसमें सर्वहिंसाविनिर्मुक्त: से अधिकारत्व कैसे सिद्ध होगा ?

ज्यौतिषे मन्त्रवादे च वैद्यके वेदकर्मणि।
अर्थमात्रं तु गृह्णीयान्नापशब्दं विचारयेत्॥
(मत्स्यसूक्त)

ज्यौतिष, मंत्रशास्त्र, चिकित्सा एवं वेदकर्म (गृह्यसूत्र, श्रौतसूत्र में वर्णित वेदविहित संस्कार यज्ञादि कर्म के बारे में) केवल शुद्ध अर्थ का ही ग्रहण करना चाहिए, अपशब्द (विकृत अर्थ) ग्रहण न करे। (आशा है कि पारस्कर गृह्यसूत्र में वर्णित अन्नप्राशन मांसभक्षण का समाधान हो गया होगा)

यहाँ पुनः शंका होती है कि उपर्युक्त प्रमाण में तो मन्त्रवाद कहा, तंत्रवाद तो नहीं। इसका समाधान यह है :-

मंत्रस्य वादो यत्र इति मंत्रवादस्तंत्रमिति।
(प्राणतोषिणी तंत्र, सर्ग कांड)

अहमेव परं ब्रह्म जगन्नाथो महेश्वर:।
इति स्यान्निश्चितो मुक्तो बद्ध: स्यादन्यथा पुमान्॥

मैं ही परब्रह्म हूँ, मैं ही जगन्नाथ और महेश्वर हूँ, इस तरह के निश्चय से सम्पन्न व्यक्ति ही मुक्त हो सकता है, अन्यथा वह बन्धन में ही पड़ा रहेगा।

योऽसौ सर्वेषु शास्त्रेषु पठ्यते ह्यज ईश्वर:।
अकायो निर्गुणो ह्यात्मा सोऽहमस्मि न संशय:॥

जो सभी शास्त्रों में अज, ईश्वर, अकाय, निर्गुण आत्मा के रूप में वर्णित है, वह मैं ही हूँ।

हेतुर्नास्ति फलं नास्ति नास्ति कर्म स्वभावतः।
असद्भूतमिदं सर्वं नास्ति लोको न लौकिक: ॥

इस संसार में हेतु (कारण) की और उसके फल की भी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। स्वभावतः कर्म भी विद्यमान नहीं है। इस संसार में सब कुछ असत्स्वरूप है, केवल उसका स्वप्नस्थ आभास होता है। इस तरह से इस लोक की और सारे लौकिक व्यवहारों की कोई वास्तविक स्थिति नहीं है।
(देवीकालोत्तरागम तन्त्र)

श्रीमालिनीविजयोत्तर तंत्र के अनुसार सद्गुरु के लक्षणों के सन्दर्भ में परमेश (सदाशिव) ने कहा है :-

हे देवि !! वैसे तो गुरु और मुझमें (ब्रह्म में) कोई भेद नहीं देखना चाहिए, गुरु प्रत्यक्ष ब्रह्म है। उसकी कृपा से दुर्गम शास्त्र भी सुगम हो जाते हैं। वैसे तो आगम शास्त्रों तथा पुराणों में गुरु के कई लक्षण, योग्यता आदि बताए गए हैं, किंतु उनमें से पांच सर्वप्रमुख लक्षण मैं बताता हूँ। देह, जाति, लिंग, आयु, आदि भौतिक लक्षणों का विचार ब्रह्मज्ञान में अधिक महत्व नहीं रखता है। हालांकि, आधार यही है गुरुचयन का, किंतु इससे भी ऊपर पांच लक्षण और हैं।

१ :- सद्गुरु की पहली पहचान उसके व्यवहार से होती है। उसके मन में किसी भी प्रकार से ईश्वर और धर्मशास्त्र के प्रति द्वेषबुद्धि नहीं डाली जा सकती है। ईश्वर और धर्म के प्रति उसकी आस्था अटूट होती है और यह बात उसके व्यवहार से भी दिखती है।

२ :- सद्गुरु कुशल मन्त्रवेत्ता होता है। वह मन्त्रों की गोपनीयता की रक्षा करता है, उसके दुरुपयोग से बचता है और मन्त्र उसके लिए सदैव फलदायी होते हैं। मन्त्रों की साधना में उसे विशेष दक्षता होती है तथा वह उनके रहस्यों से अवगत होता है।

३ :- सद्गुरु के समक्ष जाने वाले व्यक्ति उसके व्यक्तित्व की ओर स्वतः ही आकृष्ट हो जाते हैं। मनुष्य ही नहीं, अन्य जीव जंतु भी उसके प्रति आदर का भाव रखते हैं। उसके प्रति चित्त में स्वभावतः सम्मान उत्पन्न होता है तथा सत्पुरुषों के समाज में उसकी विशेष प्रतिष्ठा देखी जाती है।

४ :- सद्गुरु के लिखे गए ग्रंथ, उनके द्वारा दिये गए उपदेश और प्रवचनों के अध्ययन श्रवण के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि उसके कंठ में साक्षात् सरस्वती का वास हो। उसके उपदेश सदैव धर्मसम्मत और कल्याणकारी होते हैं। उनमें क्रोध, लोभ और भय का अभाव होता है।

५ :- सद्गुरु का पांचवां लक्षण है उसकी व्यापकता। वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता होता है। अपने सम्प्रदाय के साथ साथ वह अन्य मतों का भी विशेषज्ञ होता है। अपनी परम्परा के संरक्षण तथा अपने शिष्यों के सन्देहनाश में दक्ष होता है। उसके पास शेष के प्रति आसक्ति और अशेष के प्रति आशा नहीं होती।

हे देवि !! ऐसा सद्गुरु अपने शिष्यों को भवसागर से उसी प्रकार पार कर देता है, जैसे एक कुशल नाविक यात्रियों को। ऐसा सद्गुरु अत्यंत दुर्लभ है। वह निकट होने पर भी किसी किसी को नहीं दिखता और दूर होने पर भी किसी को सौभाग्य से मिल जाया करता है।

लोगों के साथ समस्या यह है कि एक बार किसी को गुरु मान लिया तो उनके सही गलत, झूठ सच, सबको आंख मूंद कर मानते जाते हैं।

व्यङ्गाङ्गहीना वधिराः कुयोनिषुरताश्च ये ।
तेषां मन्त्रो न सुखदः प्रोक्तः कविभिरेव च ॥
(जैमिनीय महाभारत, आश्वमेधिक पर्व, द्वितीय अध्याय)

हीनांग, अधिकांग, बधिर और अनुचित आचरण वाले वाले व्यक्ति से गुरुमन्त्र लेने पर वह मन्त्र सुखदायी नहीं होता, ऐसा विद्वानों का मत है।

गुरुर्मंत्रस्य मूलं स्यान्मूलशुद्धौ तु तच्छुभम्।
सफलं जायते यस्मात् तस्माद् यत्नेन वीक्षयेत्॥
(कालिका पुराण)

गुरु ही मंत्र के मूल हैं। मूल के शुद्ध होने पर मंत्र भी शुभ एवं सफल होता है। इसीलिए यत्नपूर्वक गुरु बनाने से पहले उसके गुण दोषादि का विचार कर लेना चाहिये।

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते॥
(महाभारत, उद्योगपर्व)

कार्य तथा अकार्य में ज्ञानरहित तथा उत्पथगामी गर्वित अभिमानी गुरु का त्याग उचित है।

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्यकार्यमजानतः।
कामाचारप्रवृत्तस्य न कार्यं ब्रुवतो वचः॥
(वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड)
कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित मनमानी करने वाले गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करना चाहिए।

गृहीतमंत्रस्त्यक्तो गुरुश्चेद्दोषसंयुतः।
महापातकयुक्तो वा गुरुदेवविनिंदकः।
त्यक्त्वा सर्वं प्रयत्नेन पुनर्ग्राह्यं यथाविधि॥
(यामल तंत्र)

यदि गुरु दोष से युक्त है अथवा महापातकयुक्त है अथवा अपने गुरु तथा देवताओं की निंदा करने वाला हो, तो उस स्थिति में प्रयत्न करके उसका त्याग करके पुनः यथाविधि नए गुरु का चयन करना चाहिए।

हालांकि मुण्डमाला तंत्र आदि के अनुयायी यह कहते हैं कि गुरु चाहे उचित हों या अनुचित हों, अथवा पातकी ही क्यों न हों, एक बार उनमें आस्था बन जाने पर अविश्वास नहीं करना चाहिए। क्योंकि गुरु में दोषदर्शन की प्रवृत्ति वाला व्यक्ति अन्य योग्य गुरुओं में भी दोषदर्शन करेगा। अतएव गुरु के ऊपर विश्वास की हानि न होने दे।

इस मत का विस्तृत परिमार्जन आगमतत्वविलास के अनुसार स्कन्दपुराण एवं यामल तन्त्र में इस प्रकार किया गया है :-
यदि गुरु दोष से युक्त है अथवा महापातकयुक्त है अथवा अपने गुरु तथा देवताओं की निंदा करने वाला हो, तो उस स्थिति में प्रयत्न करके उसका त्याग करके पुनः यथाविधि नए गुरु का चयन करना चाहिए। क्योंकि जो स्वयं ब्रह्मज्ञान से रहित हो वह शिष्य को ब्रह्मबोध कैसे करा सकता है ? भला कहीं तैरने में असमर्थ पाषाण भी किसी के पारगमन का निमित्त बनेगा ??

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru