यूँ तो अवतार लेने का कार्य दो तत्व करते हैं। एक भगवान, दूसरे जीव। यहाँ देखना यह है कि भगवान का अवतार स्वयं की इच्छा से होता है। और जीवों का अवतार भगवान की इच्छा से। जीवों में भी अति विशिष्ट महाकारण शरीरधारी पंचमकोषाश्रित जीव ही आते हैं, जो वस्तुतः एक प्रकार से ब्रह्मलीन जैसे ही होते हैं। इन्हें ही पार्षद या गण भी कहा जाता है। जब ऐसे जीव किसी विशिष्ट उद्देश्य से जन्म लेते हैं तो उनके द्वारा ऐसे कार्य किये जाते हैं जो चिरस्थायी होते हैं। जैसे शिव जी के गण शिवमुख ने उज्जयिनीपुरी में कलि के 3000 वर्ष बीतने पर अग्निवंशी क्षत्रिय सम्राट विक्रमादित्य के रूप में अवतार लिया। जैसे समाज में पूर्ण अव्यवस्था के समय भगवान नारायण के श्रीचक्र सुदर्शन ने माहिष्मती नगरी में हैहयवंशी क्षत्रिय कार्तवीर्य सहस्रबाहु अर्जुन के रूप में अवतार लिया।
जैसे कलियुग में ही नारायण के प्रधान पार्षद श्री विश्वक्सेन ने स्वामी शठकोप, रुद्र नीललोहित ने आदिगुरु शंकराचार्य जी, पितामह ब्रह्माजी ने भक्तराज नाभाजी, और स्वयं संकर्षण शेष ने वैयाकरण पतंजलि एवं श्री रामानुजाचार्य जी के रूप में अवतार लिया। वायुदेव ने मध्वाचार्य, अग्निदेव ने वल्लभाचार्य एवं नारद मुनि ने पुरंदरदास का अवतार लिया था |
भगवान अवतार लेते हैं तो वह पांच प्रकार का होता है। अंशांशावतार, अंशावतार, कलावतार, पूर्णावतार, एवं परिपूर्णावतार। हालाकि इनमे कोई छोटा और बड़ा नहीं। यहाँ सबों की शक्ति समान है। लेकिन स्तर का आधार अवतार का कारण और उसमें प्रयोग की जाने वाली दिव्य शक्ति की मात्रा से तय किया जाता है। जैसे यदि एक ही उद्देश्य से अवतरण हो तो वह अंशांशावतार है। जैसे अजीत (समुद्र मन्थन ) , जैसे हरि (गजेन्द्र मोक्ष) , मत्स्य (षष्ठ से सप्तम मन्वन्तर की प्रलय सन्ध्या), और जैसे कूर्म (समुद्र मन्थन) ।
यदि एक से अधिक कार्य हों तो उसे अंशावतार कहा जाता है। जैसे नृसिंह, जैसे वाराह, जैसे मोहिनी, जैसे कल्कि आदि। यदि कार्यों की संख्या और भी अधिक हो, लेकिन दिव्य कार्य अवतरण के समय से ही प्रारम्भ न हो, बाद में किसी निमित्त से दिव्यता दिखानी पड़े और फिर कार्य के समाप्त होने पर सामान्य होने की घटना हो तो वह कलावतार है। जैसे राजा पृथु, परशुराम,महामुनि कपिल, वेदव्यास, नर नारायण, बुद्ध, ऋषभदेव, नारद, दत्तात्रेय आदि। यदि अवतार भी चिरस्थायी हो और चमत्कार भी प्रारम्भ से अंत तक रहे और साथ ही चमत्कार की अपेक्षा लोकमर्यादा की प्रधानता भी बनी रहे तो वह पूर्णावतार है। इसमें अभी तक केवल श्रीराम का नाम हैं। यदि अवतार चिरस्थायी हो, चमत्कार प्रारम्भ से अंत तक हो और लोकमर्यादा को किनारे फेंक कर परिस्थितियों के आधार पर केवल चमत्कार से ही बिना किसी की सुने अवतार का उद्देश्य पूर्ण ब्राह्मी हस्तक्षेप से पूरा किया जाय तो वह परिपूर्णावतार है। इसमें अभी तक केवल श्रीकृष्ण का नाम है।
अवतार के विषय में यह मत व्यास, वशिष्ठ और गर्ग मुनि द्वारा सम्मत है। यही नियम भगवती के शाकम्भरी, भ्रामरी, रक्तदन्तिका, कालिका, कौशिकी, षष्ठी, शताक्षी, दुर्गा, बगला, मातंगी, भैरवी, छिन्नमस्ता, कात्यायनी, शैलजा आदि अवतारों पर भी लागू होता है। शिव के दुर्वासा, हनुमान, भैरव, शिवपुराण वर्णित 12 ज्योतिर्लिंग एवं अन्य 19 अवतार पर भी लागू होता है। गणेश और सूर्य के साथ भी ऐसा ही है। यहाँ ध्यान रहे कि शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य और गणेश में पूर्ण अभेद है और इन्हें अथर्वा ऋषि के मत से देखते हुए ब्राह्मी स्थिति को प्रधानता दी जाय।
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru