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क्या वेदव्यास एवं वाल्मीकि शूद्र थे ?

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 भृगुवंशी उपाख्यान के बाद कल्पान्तर भेद से एक और कथा का वर्णन करते हैं, जिसमें वाल्मीकि जी के द्वारा राम राम के स्थान पर मरा मरा जपने की बात है।

पुरा पूर्वभवे चासीन्मृगव्याधो द्विजाधमः।
धनुर्बाणधरो नित्यं मार्गे विप्रविहिंसकः॥
हत्वा द्विजान्महामूढस्तेषां यज्ञोपवीतकम्।
गृहीत्वा हेलया दुष्टो महाक्रोशस्तु तत्कृतः॥
ब्राह्मणस्य च यद्द्रव्यं सुधोपममनुत्तमम्।
मधुरं क्षत्रियस्यैव वैश्यस्यान्नसमं स्मृतम्॥
शूद्रस्य वस्तु रुधिरमिति ज्ञात्वा द्विजाधमः।
स जघान त्रिवर्णांश्च ब्राह्मणान्बहुलान्खलः॥

पूर्वकल्प में मृगव्याध नामक एक अधम ब्राह्मण रहता था। वह अपने हाथों में धनुष बाण को धारण करके ब्राह्मणों को मारता रहता था। ब्राह्मणों को मारकर वह उनका यज्ञोपवीत उतार कर अपमान करता हुआ रख लेता था और इस प्रकार उसने भीषण आतंक मचाया। ब्राह्मण का धन अमृत के समान, क्षत्रिय का मीठे भोजन के समान, वैश्य का अन्न के समान और शूद्र का रुधिर के समान है, ऐसा समझता हुआ वह अधम ब्राह्मण शूद्र को छोड़कर शेष तीनों वर्णों को, उसमें भी विशेषकर ब्राह्मणों को बहुतायत से मारने लगा।

द्विजनाशात्सुरास्सर्वे भयभीतास्समन्नततः।
परमेष्ठिनमागम्य कथांश्चक्रुश्च कारणम्॥
श्रुत्वा च दुःखितो ब्रह्मा सप्तर्षीन्प्राह लोकगान्।
उद्देशं कुरु तत्रैव गत्वा तस्य द्विजोत्तम॥
इति श्रुत्वा मरीचिस्तु वशिष्ठादिभिरन्वितः।
तत्र गत्वा स्थितास्सर्वे मृगव्याधस्य वै वने॥
मृगव्याधस्तु तान्दृष्ट्वा धनुर्बाणधरो बली।
उवाच वचनं घोरं हनिष्येहं च वोद्य वै॥
मरीचाद्या विहस्याहुः किमर्थं हन्तुमुद्यतः।
कुलार्थं वात्मनोऽर्थं वा शीघ्रं वद महाबल॥

ब्राह्मणों के इस नरसंहार से देवताओं को बड़ा भय हुआ और वे सब मिलकर ब्रह्माजी के पास गए एवं पूरी बात बताई। ब्रह्मा ने सब सुनकर दुःखी भाव से सर्वत्र विचरण करने वाले सप्तर्षियों को कहा कि आप उस व्यक्ति के पास जाएं। यह सुनकर मरीचि ने वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों के साथ उस वन के लिए प्रस्थान किया जहां मृगव्याध रहता था। उन्हें वहां देखकर धनुष बाण धारण करने वाला मृगव्याध हंसता हुआ सा घोर वचन कहने लगा कि आज ही तुम सबों को मार डालूंगा। उसकी बात सुनकर मरीचि आदि ने भी हंसते हुए कहा कि हमें भला तुम क्यों मारना चाहते हों? हे महाबली ! तुम्हारा कुल और उद्देश्य क्या है, सो कहो।

इत्युक्तस्तान्द्विजः प्राह कुलार्थं चात्मनो हिते।
हन्मि युष्मान्धनैर्युक्तान्ब्राह्मणांश्च विशेषतः॥
श्रुत्वा तमाहुस्ते विप्रा गच्छ शीघ्रं धनुर्धर।
विप्रहत्याकृतं पापं भुञ्जीयात्को विचारय॥
इति श्रुत्वा तु घोरात्मा तेषां दृष्ट्या सुनिर्मलः।
गत्वा वंशजनानाह भूरि पापं मयार्जितम्॥
तत्पापकं भवद्भिश्च ग्रहणीयं धनं यथा।
ते तु श्रुत्वा द्विजं प्राहुर्न वयं पापभोगिनः॥
साक्षीयं भूमिरचला साक्षी सूर्योऽयमुत्तमः।
इति श्रुत्वा मृगव्याधो मुनीनाह कृताञ्जलिः॥

ब्राह्मणों के ऐसा पूछने पर उसने अपना कुल आदि बता दिया और कहा कि मैं तुम जैसे ब्राह्मणों को धन की इच्छा से मारता हूँ। ऐसा सुनकर ब्राह्मणों में कहा कि हे धनुर्धर ! तुम शीघ्र जाकर अपने परिवार वालों से पूछो कि ब्राह्मणों को मारने से उत्पन्न पाप को कौन कौन भोगेगा। ऋषियों की पवित्र दृष्टि से उसमें कुछ पवित्रता का गयी थी, सो ऐसा सुनकर वह क्रूरकर्मा ने अपने कुटुम्ब वालों से जाकर पूछा कि मैं पाप से जो धन लाता हूँ, उसे जिस प्रकार तुम सब आपस में बांट लेते हो, उसी प्रकार से पाप को बांट लो। उसके वचनों को सुनकर लोगों ने कहा कि हम तुम्हारे पाप को नहीं भोगने वाले हैं, यह पृथ्वी, सूर्य आदि इस बात के साक्षी हैं। ऐसा सुनकर मृगव्याध ने ऋषियों के पास जाकर हाथ जोड़कर कहा –

यथा पापं क्षयं याति तथा माज्ञातुमर्हथ ।।
इत्युक्तास्तेन ते प्राहुः शृणु त्वं मंत्रमुत्तमम्॥
राम नाम हि तज्ज्ञेयं सर्वाघौघविनाशनम्।
यावत्त्वत्पार्श्वमायामस्तावत्त्वं जप चोत्तमम्॥
इत्युक्त्वा ते गता विप्रास्तीर्थात्तीर्थान्तरं प्रति।
मरामरामरेत्येवं सहस्राब्दं जजाप ह॥
जपप्रभावादभवद्वनमुत्पलसंकुलम्।
तत्स्थानमुत्पलारण्यं प्रसिद्धमभवद्भुवि॥

जिस प्रकार से मेरा पाप नष्ट हो, आप उसे बताएं। तब ऋषियों ने कहा कि हम तुम्हें उत्तम मन्त्र बताते हैं, उसे सुनो। “राम” नाम को सभी पापों को नाश करने वाला जानो। जब तक हमलोग लौट कर तुम्हारे पास वापस नहीं आ जाते हैं, तब तक तुम उसका ही उत्तम जप करो। ऐसा कहकर सप्तर्षि जन तीर्थयात्रा पर चले गए और उस मृगव्याध ने मरा मरा, ऐसा जप एक हज़ार वर्षों तक किया। जप के प्रभाव से उस वन में चारों ओर सुंदर नीलकमल खिल गए जिससे उस स्थल का नाम संसार में उत्पलारण्य, ऐसा प्रसिद्ध हुआ।

ततः सप्तर्षयः प्राप्ता वल्मीकात्तं निराकृतम्।
दृष्ट्वा शुद्धं तदा विप्रमूचुस्ते विस्मयान्विताः॥
वल्मीकान्निस्सृतो यस्मात्तस्माद्वाल्मीकिरुत्तमम्॥
तव नाम भवेद्विप्र त्रिकालज्ञ महामते।
एवमुक्त्वा ययुर्लोकं स तु रामायणं मुनिः।
कल्पाष्टादशयुक्तं हि शतकोटिप्रविस्तरम्॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, खण्ड – ४, अध्याय – १०, श्लोक – ३७-५७)

इसके बाद सप्तर्षियों ने लौटकर उसे दीमक की बाम्बी के अन्दर से निकाल कर देखा कि इसके पाप समाप्त हो गए हैं, यह शुद्ध हो गया है, उसकी तपस्या से सबों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि तुम्हें वल्मीक (दीमक) से बाहर निकाला गया है इसीलिए आज से तुम्हारा उत्तम नाम वाल्मीकि होगा। हे महामते ! तुम तीनों समय की बात जानने वाले त्रिकालदर्शी बनो। ऐसा कहकर सप्तर्षिगण अपने लोक को चले गए और वाल्मीकि मुनि ने अठारह कल्पों की कथाओं का आश्रय लेकर सौ करोड़ की परिमिता वाले रामायण की रचना की।

ऐसा ही एक कथाभाग और द्रष्टव्य है जहां शमीमुख ब्राह्मण के पुत्र अत्यंत रौद्रकर्मा वैशाख का वृतान्त है। यह प्रसङ्ग बहुत बड़ा है, अतएव मैं संक्षेप में ही बता रहा हूँ। जैसा कि वर्णन है –

आसीत्पूर्वं द्विजो देवि नाम्ना ख्यातः शमीमुखः।
गार्हस्थ्ये वर्तमानस्य तस्य पुत्रो व्यजायत।
वैशाख इति नाम्नाऽसौ रौद्रकर्मा व्यजायत॥

इसमें भी कुछ कुछ वैसी ही घटना घटित हुई है। यहां सप्तर्षिगण के समूह से अङ्गिरा ऋषि ने वैशाख नामक ब्राह्मण को, जो कुसंगति से डाकू बन गया था ,उसे कहा कि तुम्हारे परिवार में कौन तुम्हारे पाप को ग्रहण करेगा, यह पूछकर आओ। परिवार वालों के साफ शब्दों में मना करने पर वैशाख को अपने कर्म का खेद हुआ और उसने अङ्गिरा के बताए मार्ग पर पूरी श्रद्धा से चलते हुए भगवन्नाम का एक हज़ार वर्षों तक जप किया। गुरुकृपा एवं भक्ति से उसे भूख प्यास आदि नहीं लगती थी। उसके बाद ऋषियों ने वापस आकर उसे दीमक के अंदर से निकाला। वैशाख ने अपने परिवार वालों के बारे में पूछा। ऋषियों ने कहा –

बहुवर्षाण्यतीतानि तवात्र वसतो मुने।
सर्वे ते निधनं प्राप्ता ये चान्ये ते कुटुंबिनः॥
वयं चिरात्समायाताः स्थानेऽस्मिन्मुनिसत्तमाः।
स त्वं सिद्धिमनुप्राप्तो मंत्रादस्मादसंशयम्॥
यस्मात्त्वं मंत्रमेकाग्रो ध्यायन्वल्मीकमाश्रितः।
तस्माद्वाल्मीकिनामा त्वं भविष्यसि महीतले॥
स्वच्छंदा भारती देवी जिह्वाग्रे ते भविष्यति।
कृत्वा रामायणं काव्यं ततो मोक्षं गमिष्यसि॥
(स्कन्दपुराण, प्रभासखण्ड-प्रभासक्षेत्रमाहात्म्य, अध्याय – २७८, श्लोक – ५५-५८)

हे मुने ! यहां तपस्या हेतु रहते हुए तुम्हें अनेकों वर्ष बीत गए हैं। अब तक तो तुम्हारे परिवार के सभी लोग मर गए। हमलोग स्वयं ही इस स्थान पर बहुत लम्बे समय के बाद आए हैं। तुमने भी गुरुमंत्र के प्रभाव से तपस्या में सिद्धि प्राप्त कर ली है, इसमें संशय नहीं है। तुमने वल्मीक (दीमक) की बाम्बी में रहते हुए एकाग्रचित्त से मन्त्र का ध्यान किया है, इसीलिए तुम वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करोगे। तुम्हारी जिह्वा पर इच्छानुसार सरस्वती का वास होगा, उसके बाद तुम रामायण की रचना करके मोक्ष को प्राप्त कर जाओगे।

इस प्रकार हम अलग अलग कल्पों की घटनाओं एवं ग्रंथों के प्रमाणों के आधार पर यह देखते हैं कि वाल्मीकि शूद्र नहीं थे। वे वास्तव में ब्राह्मण ही थे, किन्तु कुसंगति से डाकू बन गए थे। बाद में ऋषियों की कृपा एवं अपने परिश्रम से वे शुद्ध हुए और पुनः मित्रावरुण प्रचेता के माध्यम से नया शरीर भी धारण किया। अभी जो शूद्रवर्णगत वाल्मीकि जाति है, वह वाल्मीकि के वनवासी पूर्वस्वरूप के चिन्तन के आधार पर ही सामाजिकता को प्राप्त हुई है। इस प्रकार से वेदव्यास एवं वाल्मीकि का ब्राह्मण होना सिद्ध होता है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru