ऋषियों को खेल खेल में भयभीत करने से अमावसु की पुत्री अद्रिका नाम की अप्सरा को श्रापवश मछली की योनि में जाना पड़ा था। दो मानव सन्तानों को जन्म देने के बाद वह श्रापमुक्त होगी, ऐसा निर्धारित था। उसकी दो सन्तानों में एक सत्यवती नाम वाली पुत्री और दूसरा मत्स्य नामक पुत्र हुआ। इसी मत्स्य ने मत्स्य नामक नगर बसाया जहां बाद में राजा विराट का शासन हुआ और पाण्डवों ने अज्ञातवास बिताया था। यह सब वर्णन महाभारत में विस्तार से वर्णित है। जब पराशर ऋषि ने सत्यवती से रमण की इच्छा की तो सत्यवती ने कहा –
कथयामास चात्मानं दृष्ट्वा तं काममोहितम् ।
कैवर्तानां गृहे दासी कन्याहं द्विजसत्तम ॥
नावासंरक्षणार्थाय आदिष्टा स्वामिना विभो ।
मया विज्ञापितं वृत्तमशेषं ज्ञातुमर्हसि ॥
एवमुक्तस्तया सोऽथ क्षणं ध्यात्वाब्रवीदिदम् ॥
पराशर उवाच –
अहं ज्ञानबलाद्भद्रे तव जानामि सम्भवम् ।
कैवर्तपुत्रिका न त्वं राजकन्यासि सुन्दरि ॥
कन्योवाच –
कः पिता कथ्यतां ब्रह्मन्कस्या वा ह्युदरोद्भवा ।
कस्मिन्वंशे प्रसूताहं कैवर्ततनया कथम् ॥
(स्कन्दपुराण, अवन्तीखण्ड-रेवा खण्ड, अध्याय – ९७, श्लोक – १५-१९)
अपने प्रति काममुग्ध उन्हें (पराशर को) देखकर कन्या (सत्यवती) ने कहा – हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! मैं केवटों के घर की दासी हूँ। केवटों के स्वामी की आज्ञा से मैं नाव की रक्षा करती हूँ। मैंने जो कहा है, उसे आप स्वयं भी जान सकते हैं। इस प्रकार कहे जाने पर पराशर ने ध्यान लगा कर सारी बात जान ली और कहा – हे पवित्र आचरण वाली ! मैंने ध्यानबल से सारी बात जान ली है कि तुम्हारा जन्म कैसे हुआ है, तुम किसी केवट की पुत्री नहीं हो, अपितु राजकन्या हो। कन्या ने पूछा – यदि ऐसा है तो बताएं कि मेरे पिता कौन हैं ? किसके गर्भ से मेरा जन्म हुआ और किसके वंश में मैं आयी हूँ, फिर मैं केवट की बेटी कैसे बनी ?
पराशर जी ने उसे सारा वृत्तान्त बताया जिसे मैं संक्षेप में बता रहा हूँ, अत्यन्त विस्तृत अध्ययन के लिए गुरु एवं ग्रंथ की प्रत्यक्ष शरण ग्रहण करें। उपरिचर वसु नाम के अत्यंत पराक्रमी राजा हुए हैं। एक बार वे वन में गए हुए थे उसी समय उनकी गिरिका नाम की रानी ऋतुस्नाता हुई। वन की सुंदरता को देखकर और रानी का चिंतन करके राजा वसु का वीर्य स्खलित हो गया और उन्होंने (कृत्रिम गर्भाधान के निमित्त) उसे एक दोने में स्थापित करके प्रशिक्षित बाज के द्वारा अपने महल में भिजवाया। उस बाज को मार्ग में एक अन्य पक्षी ने देखा और यह मांस ले जा रहा है, ऐसा समझकर उसने आक्रमण कर दिया। छीना झपटी में वह दोना यमुना में गिर गया जहां श्रापवश मछली के रूप से निवास कर रही अद्रिका नाम की अप्सरा उसे ग्रहण करके गर्भवती हुई एवं बाद में उसके गर्भ से सत्यवती तथा राजा मत्स्य का जन्म हुआ। बाद में उस कन्या का पालन पोषण केवटों के राजा ने अपनी पुत्री बनाकर किया। इस कथा का वर्णन अनेकों ग्रंथों में है, किन्तु मैं संकेतमात्र हेतु निम्न श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूँ।
तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा॥
मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी।
श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम्॥
जग्राह तरसोपेत्य साऽद्रिका मत्स्यरूपिणी।
कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविनः॥
मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम।
उज्जह्रुरुदरात्तस्याः स्त्रीं पुमांसं च मानुषौ॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय – ६४, श्लोक – ७३-७६)
इन सब कथाओं में किसी को सन्देह या अविश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि,
तथा सत्यवती नारी शफरीगर्भसंभवा।
तथैव महिषीगर्भो जातश्च महिषासुरः॥
तथा सन्ति पुरा नार्यः कारुण्याद्गर्भसंभवाः।
तथा हि वसुदेवेन रोहिण्यास्तनयोऽभवत्॥
देवतानां महर्षीणां शापेन च वरेण च।
अयुक्तमपि यत्कर्म युज्यते नात्र संशयः॥
साम्बस्य जठराज्जातं मुसलं मुनिशापतः।
युवनाश्वस्य गर्भोऽभून्मुनीनां मंत्रगौरवात्॥
(स्कन्दपुराण, ब्रह्मखण्ड-ब्रह्मोत्तरखण्ड, अध्याय – १९, श्लोक – ६७-७०)
सत्यवती का जन्म मछली के पेट से और महिषासुर का जन्म भैंस के गर्भ से हुआ। पहले भी वसुदेव के पुत्र बलराम, जो देवकी के गर्भ स्थानांतरित हो गए थे, रोहिणी के गर्भ से उनके पुत्र बने। देवताओं के महर्षियों के श्राप तथा वरदान से अप्राकृतिक कर्म भी सम्भव हो जाते हैं, जैसे मुनियों के श्राप के कारण साम्ब के गर्भ से मूसल निकला तो मुनियों के मन्त्रबल के प्रभाव से राजा युवनाश्व ने (पुरुष होने पर भी) गर्भधारण कर लिया था।
इस प्रकार से शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर पराशर मुनि का चरित्र भी निर्मल सिद्ध होता है एवं वेदव्यास जी भी वैष्णवावतार ऋषि ब्राह्मण ही सिद्ध होते हैं। अब हम ऋषि वाल्मीकि पर चर्चा करते हैं। इनके विषय में पर्याप्त विवाद है। निम्न दो प्रधान मत संसार के विभिन्न विद्वान् रखते हैं –
१) वाल्मीकि पहले डाकू थे, बाद में मरा मरा जपकर ऋषि बने।
२) डाकू वाल्मीकि अलग थे एवं रामायणकार वाल्मीकि अलग थे।
मैंने इस विषय में शास्त्रों के अध्ययन से जो जो बातें समझी हैं, उन्हें यथावत् प्रस्तुत करूँगा। कुछ विद्वान् कहते हैं कि नाभादास जी ने भक्तमाल में वाल्मीकि को रत्नाकर नामक डाकू बताया है, उससे पूर्व कहीं उनके डाकू होने का वर्णन नहीं मिलता है। इस सन्दर्भ में वे निम्न श्लोक का प्रमाण बहुतायत से देते हैं –
प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन।
न स्मराम्यनृतं वाक्यमिमौ तु तव पुत्रकौ॥
बहुवर्षसहस्राणि तपश्चर्या मया कृता।
नोपाश्नीयां फलं तस्या दुष्टेयं यदि मैथिली ॥
(वाल्मीकीय रामायण, उत्तरकाण्ड, अध्याय – ९६, श्लोक – १९-२०)
सीताशपथग्रहण के प्रसङ्ग में ऋषि वाल्मीकि ने कहा – हे रामजी ! मैं प्रचेता (मित्रावरुण) का दसवां पुत्र हूँ। मैंने इससे पूर्व कभी झूठ कहा हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता है। ये दोनों (कुश एवं लव) आपके ही पुत्र हैं। मैंने हज़ारों वर्षों तक तपस्या की है, यदि सीताजी का चरित्र अशुद्ध है, तो उस तपस्या का फल मुझे न मिले।
देवमण्डल में मित्रावरुण (प्रचेता) के अन्य पुत्र, जैसे अगस्त्य, वशिष्ठ आदि की ब्राह्मण संज्ञा है। अगस्त्य ने अपना दूसरा तथा वशिष्ठ ने तीसरा जन्म मित्रावरुण के अंश से ही लिया था। सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य में प्रचेतसः प्रकृष्टज्ञाना: लिखा है, अर्थात् अत्यन्त श्रेष्ठ ज्ञान से युक्त होने से प्रचेता (प्रचेतस्) कहते हैं।
नाभादास जी ब्रह्मा के अवतार थे। जब ब्रह्माजी ने अघासुर वध के बाद भगवान् के प्रभाव पर सन्देह करके ग्वाल बालों एवं गौसमूह का अपहरण कर लिया था उसके बाद भगवान् के दिव्य सर्वव्यापी प्रताप को देखकर उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने सभी अपहृत जनों को मुक्त करते हुए भगवान् से क्षमा मांगी, ये सब कथा श्रीमद्भागवत आदि में वर्णित है। सन्तजनों का मत है कि भक्तों के प्रति अपराध करने के कारण ब्रह्माजी ने ही एक अंश से नाभादास का अवतार लिया और भक्तमाल की रचना करते हुए उसमें भगवद्भक्तों का चरित्र लिखा, जिसका सभी मान्य आचार्यगण सम्मान करते हैं। श्री करपात्री स्वामी आदि भी भक्तमाल की कथा बड़े आदर से सुनते थे। जैसा कि मैंने परम चिरंजीवी काकभुशुण्डि जी के वचनों से सिद्ध किया था कि अनेकों कल्पों के अनेकों रामायणों के लेखन के लिए अनेकों बार वाल्मीकि आये हैं, तो उनमें से ही कुछ प्रधान उदाहरण मैं प्रस्तुत करता हूँ। मैं संक्षेप में ही सारभूत शब्दों में कथानकों का वर्णन करूँगा।
त्रेतायुगे चतुर्विंशे भृगुवंशोद्भवेन तु ॥
वाल्मीकिना तु रचितं स्वमेव चरितं शुभम् ॥
रामाख्यानं महापुण्यं श्रोतॄणां विष्णुलोकदम् ॥
(विष्णुधर्मोत्तरपुराण, खण्ड – ०१, अध्याय – ७४, श्लोक – ३८-३९)
चौबीसवें त्रेतायुग में भृगुवंश में उत्पन्न वाल्मीकि के द्वारा रामजी का शुभ चरित्र जो अत्यंत पुण्यदायी है, लिखा गया, जिससे सुनकर श्रोतागण विष्णुलोक को प्राप्त करते हैं। सर्वप्रथम हम उस कथा का वर्णन करेंगे जब भृगुवंश में वाल्मीकि ऋषि का जन्म हुआ था।
सनत्कुमार उवाच
आसीद्व्यास पुरा विप्रः सुमतिर्भृगुवंशजः।
रूपयौवनसंपन्ना तस्य भार्याथ कौशिकी॥
तस्य पुत्रः समुत्पन्नो ह्यग्निशर्मेति नामतः।
स पित्रा प्रोच्यमानोऽपि वेदाभ्यासं न मन्यते॥
ततो बहुतिथे काले अनावृष्टिरजायत।
तस्यां विपद्गतः सोऽथ दक्षिणामाश्रितो दिशम्॥
ततोऽसौ सुमतिर्विप्रः सभार्यः स सुतस्तथा।
विदेशं काननं प्राप्तः कृत्वा चाश्रममाश्रितः॥
सनत्कुमार कहते हैं – हे वेदव्यास जी ! पूर्वकाल में भृगुवंश में उत्पन्न सुमति नाम के एक ब्राह्मण थे। उनकी अत्यन्त सुन्दर एवं यौवनसम्पन्ना कौशिकी नाम की पत्नी थी। उनका पुत्र जब उत्पन्न हुआ तो उसका नाम अग्निशर्मा रखा गया। अपने पिता के कहने पर भी अग्निशर्मा की रुचि शिक्षा दीक्षा, वेदाभ्यास आदि में नहीं थी। बहुत समय बीतने पर उस क्षेत्र में घोर अकाल पड़ा जिस विपत्ति से बचने के लिए सुमति नाम वाले वे ब्राह्मण, अपनी पत्नी एवं पुत्र के साथ दक्षिण दिशा में स्थित, अपने देश से दूर एक जंगल में चले गए।
आभीरैर्दस्युभिः सार्धं संगोऽभूदग्निशर्मणः।
आगच्छति पथा तेन यस्तं हन्ति स पापकृत्॥
स्मृतिर्नष्टा गता वेदा गतं गोत्रं गता श्रुतिः।
कस्मिंश्चिदथ काले तु तीर्थयात्राप्रसंगतः॥
सप्तर्षयः पथा तेन सुव्रताः समुपस्थिताः।
अग्निशर्माथ तान्दृष्ट्वा हन्तुकामोऽब्रवीदिदम्॥
वस्त्राणीमानि मुच्यध्वं छत्रिकोपानहौ तथा।
हन्तव्या हि मया यूयं गन्तारो यमसादने॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा अत्रिर्वचनमब्रवीत्।
अस्मत्पीडनजं पापं कथं ते हृदि वर्तते॥
वयं तपस्विनो भूत्वा तीर्थयात्राकृतोद्यमाः॥
उस जंगल में आभीर जाति के कुछ लुटेरे रहते थे। उन्हीं के साथ अग्निशर्मा की संगति हो गयी। उसके बाद वन के मार्ग में आने वाले लोकों को वह पापी मारने लगा। अपने ब्राह्मण होने का, उसके कर्तव्य का उसे विस्मरण हो गया। उसने थोड़ा बहुत जो वेद आदि पढ़ा था, वह भी भूल गया, उसे अपने गोत्र आदि का भी स्मरण न रहा। कुछ काल के बाद वहां से तीर्थयात्रा हेतु उत्तम व्रत का पालन करने वाले सप्तर्षियों का आगमन हुआ। उन्हें देखकर मारने की इच्छा से अग्निशर्मा ने कहा कि तुम्हारे पास जो भी वस्त्र, छाता, खड़ाऊं आदि है वह सब उतार कर मुझे दे दो, क्योंकि मैं तुम्हें मारकर यमलोक पहुंचाने वाला हूँ। उसके वचन को सुनकर अत्रिमुनि ने कहा कि हमें कष्ट पहुंचाने का पाप करने का विचार तुम्हारे मन में क्यों आया है, हम तो तपस्वी हैं, तीर्थयात्रा पर निकले हैं।
अग्निशर्मोवाच
ममास्ति माताथ पिता सुतो भार्या गरीयसी।
पोषयामि सदा तान्स्तु एतन्मे हृदि संस्थितम्॥
अत्रिरुवाच
पित्रादीनाशु पृच्छस्व स्वकर्मोपार्जितं प्रति।
यद्युष्मदर्थं क्रियते पापं तत्कस्य कथ्यताम्॥
यदि ते कथयन्ति स्म मा मृषा प्राणिनो वधीः॥
अग्निशर्मोवाच
न कदाचिन्मया ते तु संपृष्टा ईदृशं वचः।
युष्माकं वचसा मेऽद्य प्रतिबोधः प्रवर्तते॥
गत्वा पृच्छामि तान्सर्वान्कस्य भावश्च कीदृशः।
यूयमत्रैव तिष्ठध्वं यावदागमनं मम॥
इत्युक्त्वा ताञ्जगामाशु पितरं स्वमुवाच ह।
धर्मस्य प्रतिघातेन प्राणिनां पीडनेन च॥
सुमहद्दृश्यते पापं कस्य तत्कथ्यतां मम॥
अग्निशर्मा ने कहा – मेरे घर में मेरी माता, पिता, पुत्र एवं सबसे बढ़कर मेरी पत्नी है। उनके पोषण के लिए ही मैं सब कुछ करता हूँ, यही विचार मेरे मन में आता है। अत्रि ने कहा – तुम जाकर अपने पिता आदि से शीघ्र यह पूछो कि अपने इस कर्म के द्वारा तुम जो कमाते हो, जिस परिवार के लिए तुम यह पाप करते हो, वह पाप किसका होगा ? कौन उसका फल भोगेगा ? यदि पहले तुम प्राणियों का वध करने वाले विषय में पिता से पूछ चुके हो, तो मुझे उनका उत्तर बताओ, झूठ न कहना, व्यर्थ में प्राणियों को मत मारो। अग्निशर्मा ने कहा – मैंने आजतक अपने पिता से इस विषय में कुछ नहीं पूछा है। आज आपके वचन से मुझे कुछ बोध हुआ है, मैं जाकर तुरन्त पूछता हूँ, तबतक आप यहीं रहें। ऐसा कहकर वह अग्निशर्मा तुरन्त अपने पिता के पास गया और कहा कि धर्म के इस हनन से, प्राणियों को पीड़ा देने से जो बहुत बड़ा पाप दिखाई पड़ रहा है, वह किसका होगा, यह मुझे कहें।
पिता प्राह तथा माता नापुण्यमावयोरिह॥
त्वं जानासि यत्कुरुषे कृतं भाव्यं पुनस्त्वया।
तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा भार्या वचनमब्रवीत्॥
तयाप्युक्तं न मे पापं पापमेतत्तवैव हि।
तद्वाक्यमब्रवीत्पुत्रं बालोऽहमितिसोऽब्रवीत्॥
तज्ज्ञात्वा हृदयं तेषां चेष्टितं चैव तत्त्वतः।
नष्टोऽहमिति मन्वानः शरणं मे तपस्विनः॥
क्षिप्त्वाथ लगुडं कृष्णं येन वै जन्तवो हताः।
प्रकीर्य केशांस्त्वरितमृषीणामग्रतः स्थितः॥
प्रणम्य दण्डपातेन ततो वचनमव्रवीत्।
न मे माता न च पिता न भार्या न च मे सुतः॥
सर्वैस्तैः परिमुक्तोऽहं भवतां शरणं गतः।
सुष्ठूपदेशदानान्मां नरकात्त्रातुमर्हथ॥
पिता और माता ने कहा – इस अधर्म में हमारी कोई भागीदारी नहीं होगी। तुम क्या करते हो, उसका क्या फल होगा, यह सब तो तुम्हीं जानो। फिर पत्नी ने भी कहा कि आपके पाप में मेरा कोई हिस्सा नहीं है। पुत्र ने भी कह दिया कि मैं तो बच्चा हूँ, मैं कुछ नहीं जानता। परिवार वालों की इस बात को सुनकर अग्निशर्मा ने सोचा कि मेरा यह जीवन तो नष्ट ही हो गया, अब वे तपस्वी ही मेरी रक्षा कर सकते हैं। ऐसा सोचकर जिस लाठी से वह लोगों को मारता था, उसे जमीन पर फेंक कर अपने केशों को बिखेर कर दीनभाव से ऋषियों के आगे गिर पड़ा और प्रणाम करके कहा – मेरे माता, पिता, पत्नी या पुत्र कोई भी मेरा साथ देने के लिये तैयार नहीं है। इसलिए उनकी ओर से मुक्त होकर मैं आपसबों की शरण में आया हूँ। आप उचित मार्गदर्शन करके मुझे नरक में जाने से बचाईए।
एवं तं वादिनं दृष्ट्वा ऋषयोऽत्रिमथाब्रुवन्।
भवतो वचनादस्य प्रतिबोधः समागतः॥
भवताऽयमनुग्राह्यः शिष्यो भवतु ते मुने।
तथेत्युक्ताथ तान्प्राह चाग्निं ध्यानं समाचर॥
अनेन ध्यानयोगेन महामंत्रजपेन च।
अनेकदुस्तरात्युग्रपापकृज्जनघातकः॥
संस्थितो वृक्षमूले त्वं परा सिद्धिं गमिष्यसि॥
इत्युक्त्वा ते ययुः सर्वे सकामं सोऽपि तत्र वै।
तद्ध्यानस्थोऽभवद्योगी वत्सराणि त्रयोदश॥
उसे ऐसा कहते देखकर अन्य ऋषियों ने अत्रि ने कहा कि आपके ही वचनों से इसके मन में विवेक का जन्म हुआ है अतः यह आपका ही शिष्य है, आप इसपर कृपा करें। फिर ऋषियों ने अग्नि का (ब्राह्मणों के इष्ट अग्नि ही हैं) ध्यान कराया और कहा कि इस ध्यान के माध्यम से और (राम आदि) महामंत्र के जप से तुमने अत्यंत जघन्य जो जो पाप किये हैं उसके अशुभ नष्ट हो जाएँगे। इसी वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करो, तुम्हें परम सिद्धि मिल जाएगी। ऐसा कहकर ऋषिगण वहां से चले गए और वह (अग्निशर्मा) प्रायश्चित्त की इच्छा से ध्यानयोग में लीन होकर वहीं पर तेरह वर्षों तक तपस्या करता रहा।
तस्योपर्यभवत्तत्र वल्मीकोऽविचलस्य च।
निवृत्तास्तु पथा तेन मुनयस्तत्र शुश्रुवुः॥
उदीरितं ध्वनिं तेन वल्मीके विस्मयान्विताः।
ततः खनित्वा वल्मीकं काष्ठीभूतोरुशंकुभि:॥
तं दृष्ट्वोत्थापयामासुर्मुनयो नयसंयुतम्।
नमश्चक्रेऽथ तान्सर्वान्स विप्रो मुनिपुंगवान्॥
तान्प्राह प्रणतो भूत्वा तपसा दीप्ततेजसः।
प्रसादाद्भवतामद्य ज्ञानं लब्धं मया शुभम्॥
दीनोऽहमुद्धृतः सर्वैर्मग्नोऽहं पापकर्दमे।
तस्येति ते वाक्यमूचुः परमधार्मिकाः॥
वल्मीकेऽस्मिन्स्थितः पुत्र यतस्त्वमेकचित्ततः।
वाल्मीकिरिति ते नाम भुवि ख्यातं भविष्यति॥
उसके बाद अविचल भाव से बैठे उसके चारों ओर वल्मीक (दीमक) का आवरण हो गया। उधर से पुनः ऋषिगण गुजरे, जिन्होंने उस स्थान पर मंत्रजप सुना। दीमक के अंदर से यह कैसी ध्वनि है ऐसा सोचकर ऋषियों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने उस स्थान और बाम्बी को खोदकर अग्निशर्मा को बाहर निकाला। उसने बाहर निकल कर ऋषियों को प्रणाम किया, तपस्या से उसका शरीर सूर्य के समान तेजस्वी हो गया था। उसने कहा – आप सभी ऋषियों की कृपा से मुझे शुभ ज्ञान प्राप्त हुआ है। मैं पाप के कीचड़ में फंसा हुआ था, फिर आपसबों ने मुझे यहां से उबारा। इसके वाक्य को सुनकर परमधार्मिक ऋषियों ने कहा कि पुत्र, तुमने एकाग्रचित्त से यहां तपस्या की है, और वल्मीक (दीमक) से ढक गए थे, इसीलिए आज से तुम्हारा नाम वाल्मीकि, प्रसिद्ध होगा।
इत्युक्त्वा मुनयो जग्मुः स्वां दिशां तपसान्विताः।
गतेषु मुनिमुख्येषु वाल्मीकिस्तपतां वरः॥
कुशस्थल्यामथागम्य समाराध्य महेश्वरम्॥
तस्मात्कवित्वमासाद्य चक्रे काव्यं मनोरमम्।
रामायणं च यत्प्राहुः कथां सुप्रथमस्थिताम्॥
ततः प्रभृति देवेशो वाल्मीकेश्वरसंज्ञक।
ख्यातोऽवन्त्यां ततो व्यास नृणां कवित्वदायकः॥
इति ते कथितं लिंगं वाल्मीकेश्वरमुत्तमम्।
यस्य दर्शनमात्रेण कवित्वमुपपद्यते ॥
(स्कन्दपुराण, अवन्तीखण्ड – अवन्तीक्षेत्रमाहात्म्य, अध्याय – २४, श्लोक – ०३-३८)
ऐसा कहकर ऋषिगण तपस्या के लिए अलग अलग दिशाओं में चले गए। फिर तपस्वियों में श्रेष्ठ वाल्मीकि ने कुशस्थली में जाकर महादेव जी की आराधना की और उनकी कृपा से कवित्वशक्ति प्राप्त करके मनोरम काव्य, जिसे रामायण कहते हैं, उसकी रचना की। जिस स्थान पर उन्होंने शिवलिंग की पूजा की, उसे वाल्मीकेश्वर शिवलिंग कहा जाता है, जिसके दर्शनमात्र से कवित्वशक्ति की प्राप्ति होती है।