अंग्रेज, अरबी, रोमन, पुर्तगाली, अमरीकी आदि के यहां तो यह बात थी ही, ऐसे लोग जहां जहां गए, वहां वहां इस पाप को फैलाते गए। और जब भारत में वे अधिक सफल न हुए तो काले गोरे के आधार पर आर्य, द्रविड़, दलित, सवर्ण का द्वेषबीजारोपण कर दिया। स्वयं शिक्षा पर प्रतिबंध लगाने वाले लोगों ने शूद्रों को भ्रमित किया कि शूद्रों को ब्राह्मण शिक्षा देने से रोकते थे। इस बात के अधिक विवेचन के लिए “शूद्र कौन थे – अवलोकन एवं समीक्षा” में डॉ त्रिभुवन सिंह के द्वारा दिये गए ऐतिहासिक दस्तावेज के प्रमाणों से आप यह जान सकते हैं कि कैसे अंग्रजों के आने से पहले तक भारतीय गुरुकुलों में शूद्र छात्रों की संख्या ब्राह्मण छात्रों से कई गुणा अधिक थी।
आज भी जहां जहां सनातन धर्म का बाहुल्य नहीं है, दूर के देशों की बात रहने भी दें तो कल तक के भारतीय अंश, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ही देखें कि प्रतिदिन सैकड़ों हिन्दू लड़कियों को अगवा करके उनपर बलात्कार किये जाते हैं। उनकी धूर्तता देखिये, उनके ही कानूनों से –
१) यदि कोई मुसलमान किसी गैर मुसलमान यानी काफिर लड़की से बलात्कार करता है, तो उसे बलात्कार माना ही नहीं जाएगा, क्योंकि काफिरों की स्त्री, सम्पत्ति के उपभोग का जन्मसिद्ध अधिकार मुसलमान का होता है।
२) यदि लड़की चार मुसलमान गवाह अपने समर्थन में खड़ी न कर सके तो उसपर किया गया बलात्कार सिद्ध नहीं होगा, भले ही उस बलात्कार के साक्षी सैकड़ों गैर मुसलमान लोग क्यों न हों।
३) यदि किसी को चार मुसलमान खड़े होकर कहें कि उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया है, तो उस व्यक्ति को मुसलमान मान लिया जाएगा।
४) एक बार इस प्रकार से मुसलमान सिद्ध हो जाने पर यदि वह व्यक्ति इससे इंकार करता है तो उसपर कुफ्र का आरोप लगाकर मृत्युदण्ड दिया जाएगा।
अब देखिए, पहले तो हिन्दू लड़की पर बलात्कार हुआ, ऐसा कोई केस बनेगा ही नहीं। यदि बन भी गया तो यदि वह लड़की इसके प्रमाण में चार मुसलमान गवाह नहीं ला सकी तो केस निरस्त हो जाएगा, वैसे भी ऐसे मामलों में एक मुसलमान दूसरे मुसलमान के विरुद्ध गवाही नहीं देता। फिर बलात्कारी और उसका परिवार मिलकर लड़की को, भले ही वह अगवा की गई हो, मुसलमान घोषित कर देता है, और इसके बाद यदि वे लड़की इससे इंकार करती है, तो उसे मार दिया जाता है। इन्हीं विचारधारा के इस्लाम और ईसाईयत के साथ हाथ मिलाकर वामपंथी षड्यंत्रकारी संस्थाएं, पैसा और हथियार के दम पर शूद्रों को ब्राह्मणों के विरुद्ध अफवाहों का आश्रय लेकर भड़काती हैं और देश को खंडित कर रही हैं। इन्होंने अपने यहां की स्लेवरी और गुलामी को हमारे यहां की दासप्रथा बताकर उस बात का आरोप हमारे धर्म पर लगा दिया जो हमने कभी न किया और न करने की सोची, उल्टे हमारे यहां दण्डनीय बताया गया है। हमारे शास्त्र कहते हैं –
विद्यादाताऽन्नदाता च भयत्राता च जन्मदः।
कन्यादाता च वेदोक्ता नराणां पितरः स्मृताः॥
………
भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्य्यजः शरणागतः।
धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्य्यजो धनभागिति॥
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, गणपतिखण्ड, अध्याय – ०३)
विद्या देने वाला, आजीविका या अन्न देने वाला, भय के समय रक्षा करने वाला, जन्म देने वाला और कन्यादान करने वाला, इन्हें वेदों के अनुसार लोगों का पिता कहा गया है। ऐसे ही भृत्य (दास), शिष्य, जिसका हमने पालन किया है, जो हमारे वीर्य से उत्पन्न हुआ हो, अथवा हमारी शरण में आया हो, इनमें से जो वीर्य से उत्पन्न हुआ हो, उसे धन में उत्तराधिकारी पुत्र कहा गया है और शेष चारों को धर्मपुत्र कहा गया है। इसमें धर्मपुत्र के साथ भी (धन के उत्तराधिकार को छोड़कर) अपने बेटे जैसा ही व्यवहार होगा। (ध्यान रहे, धर्मपुत्र में भृत्य अर्थात् दास भी आता है और यदि उसने स्वामी की प्राणरक्षा की हो तो फिर धन में भी भाग लेने का अधिकारी हो जाता है)
जहां जहां शास्त्रों में राजा के लिए अपने दासों के प्रति कर्तव्य की बात आई है, वहां वहां राजा का अर्थ सामान्य स्वामी से भी लिया जा सकता है, क्योंकि नियम वही रहते हैं। स्वयं महारानी द्रौपदी का महारानी सत्यभामा के प्रति निम्न वचन देखें –
शतं दासीसहस्राणि कौन्तेयस्य महात्मनः।
कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलंकृताः॥
महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः।
मणीन्हेम च विभ्रत्यो नृत्यगीतविशारदाः॥
तासां नाम च रूपंच भोजनाच्छादनानि च।
सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम्॥
(महाभारत, वनपर्व, अध्याय – २३४, श्लोक – ४८-५०)
महात्मा कुन्तीपुत्र (युधिष्ठिर) की एक लाख दासियाँ थीं, जो अपने शंख के बने हुए बाजूबंद एवं कंठ में सोने के हार धारण करके अलंकृत रहती थीं। बहुत सी बहुमूल्य मालाओं को धारण करने वाली, सुंदर वेश भूषा से युक्त, चंदन आदि से अलंकृत, सोने और मणियों से चमकती हुई, नृत्य-गीत आदि में कुशल थीं। मैं (द्रौपदी) उन सभी दासियों के नाम, रूप, भोजन, आवास आदि की व्यवस्था को जानते हुए उनके द्वारा कौन सा कार्य किया गया है, और कौन सा नहीं, इसका ध्यान रखती थी।
बालानामथ वृद्धानां दासानां चैव ये नराः।
अदत्त्वा भक्षयन्त्यग्रे ते वै निरयगामिनः॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय – ६२, श्लोक – ३८)
जो लोग बालकों को, वृद्धों को एवं दासों को बिना (भोजन) दिए ही, स्वयं भोजन कर लेते हैं, वे नरक में जाते हैं। (क्या आप विदेशी स्लेवरी या गुलामी में इस उदारता की कल्पना कर सकते हैं ?)
शास्त्रों में यदि अपना पुत्र भी शास्त्रोक्त संस्कार से हीन हो, तो वह दास ही है, ऐसा उल्लेख है।
चूडाद्या यदि संस्कारा निजगोत्रेण संस्थिताः।
दत्ताद्यास्तनयास्तेस्युरन्यथा दास उच्यते॥
(कालिका पुराण, और्वनीति, अध्याय – ८८, श्लोक – ४०)
हे महाराज (सगर !) अपने (पिता) के गोत्र से जिसका मुंडन आदि संस्कार सम्पादित हुआ है, वही पुत्र/तनय कहाता है, अन्यथा दास कहाता है।
शूद्रः पैजवनो नाम सहस्राणां शतं ददौ।
ऐन्द्राग्नेन विधानेन दक्षिणामिति नः श्रुतम्॥
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय – ५९, श्लोक – ४०-४२)
पैजवन नामक शूद्र ने ऐन्द्राग्नेय विधान से यज्ञ करके एक लाख दक्षिणा दी थी, ऐसा हमने सुना है।
यहां ध्यातव्य है कि यह विधान पाकयज्ञ का है, जिसमें वेदमन्त्रों का, स्वाहाकार, आदि का प्रयोग नहीं होता है।
ब्रह्मयज्ञादन्ये पञ्चमहायज्ञान्तर्गता वैश्वदेव-होमबलिकर्म्मनित्यश्राद्धातिथिभोजनात्मकाश्चत्वारः पाकयज्ञाः।
ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त जो पञ्चमहायज्ञ में वैश्वदेव बलिकर्म, होम, नित्यश्राद्ध, अतिथिभोजन आदि चार हैं, वे पाकयज्ञ कहाते हैं। इसमें द्विजाति के लिए समन्त्रक एवं शूद्र के लिए अमन्त्रक विधान है। यह पैजवन नाम का शूद्र, परम् विष्णुभक्त था एवं इसने गालव ऋषि से धर्ममार्ग का ज्ञान प्राप्त किया था।
गुलाम और स्लेव के साथ विदेशों में जो व्यवहार के नियम बनाये गए थे, उनके उदाहरण तो आपने पढ़ ही लिए, अब सनातनी शास्त्र दासों के प्रति जो व्यवहार का निर्देश करते हैं, उसका उदाहरण देखें –
दासं शपेन्न वै क्रुद्धः सर्वबन्धूनमत्सरी।
भीताश्वासनकृत्साधुः स्वर्गस्तस्याव्ययं फलम्॥
(भविष्य पुराण, उत्तरपर्व, अध्याय – २०५, श्लोक – १३२)
क्रोधित होकर दासों को श्राप न दे, किसी के प्रति ईर्ष्या का भाव न रखे। डरे हुए व्यक्ति को सांत्वना देने से अक्षय स्वर्गसुख को देने वाले फल की प्राप्ति होती है। (श्राप का अर्थ केवल चमत्कारी दण्ड नहीं होता है, शब्दकोषों में श्राप का अर्थ क्रोध, आक्रोश आदि भी बताया गया है।)
जब लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद श्रीराम जी की आज्ञा से हनुमानजी अशोक वाटिका में जाकर सीताजी को यह शुभ समाचार देते हैं, तब उन्होंने विचार किया कि क्यों न साथ ही, सीताजी पर अत्याचार करने वाली इन राक्षसियों को भी दो चार हाथ लगा ही दिया जाय !! तब सीताजी ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए कहा,
राजसंश्रयवश्यानां कुर्वन्तीनां पराज्ञया ।
विधेयानां च दासीनां कः कुप्येद्वानरोत्तम॥
भाग्यवैषम्ययोगेन पुरा दुश्चरितेन च ।
मयैतत् प्राप्यते सर्वं स्वकृतं ह्युपभुज्यते॥
प्राप्तव्यं तु दशा योगान्मयैतदिति निश्चितम् ।
दासीनां रावणस्याहं मर्षयामीह दुर्बला॥
आज्ञप्ता रावणेनैता राक्षस्यो मामतर्जयन्।
हते तस्मिन्न कुर्युर्हि तर्जनं वानरोत्तम॥
(वाल्मीकीय रामायण, लंकाकाण्ड, अध्याय – ११६, श्लोक – ३९-४२)
सीताजी कहती हैं – हे वानरश्रेष्ठ ! राजा के ऊपर आश्रित रहने वाली, दूसरों की आज्ञा का पालन करने वाली इन दासियों पर भला कौन क्रोध करेगा ? मेरे साथ जो हुआ, पूर्व में मैंने जो दुश्चरित्र (स्वर्गमृग का लोभ, एवं निरपराध लक्ष्मण के प्रति द्वेष) किया, मैंने तो अपने कर्म का ही फल भोगा है। उसके ही कारण मुझे यह दशा प्राप्त हुई है, ऐसा निश्चित है। इसीलिए मैं रावण की इन दासियों को क्षमा करती हूँ। रावण की आज्ञा से ही ये मुझे डांटती रहती थीं, अब रावण के मरने पर, हे वानरोत्तम ! तुम इन्हें मत मारो।
शत्रु की दासियों के भी प्रति ऐसी उदारता सनातनी मर्यादा ही सिखा सकती है। सीताजी ने अपने राज्यकाल में भी, सार्वजनिक रूप से यह उद्घोषणा करवा दी थी कि “कोई भी स्त्री, चाहे किसी भी वर्ग से हो, दरिद्रता के कारण शृंगारहीना न रहे। जिसके पास आभूषण न हों, वह राजकोष से ले जाये। अन्य देशों के राजा भी इस नियम का पालन अवश्य करें”।