प्रश्नकर्ता सागर – कृपया इस श्लोक का सही अर्थ बतायें गुरुजी !
अस्वादितं न चान्येन भक्ष्यार्थे च ददाम्यहम्।
अधोभागे च मे नाभेर्वर्तुलौ फलसन्निभौ॥
(पद्मपुराण, १/३१/१२६)
यहां शिवजी के अंडकोष के भक्षण का वर्णन क्यों है ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – शिवदूती देवी के द्वारा अण्डकोष के भक्षण का विषय है। किसका अण्डकोष ? शिव का। ब्रह्माण्ड को भी अण्डकोष कहते हैं। अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोषसन्ततिम्। जब विश्वरूप का वर्णन करते हैं तो द्यौस्ते शीर्षं – आकाश आपका मस्तक है, ऐसा कहते हैं। इस अनुसार पृथ्वी शिव की नाभि है और नाभि के नीचे, पृथ्वी के नीचे के लोक असुरों के हैं। शिवदूती देवी के द्वारा असुरों का भक्षण मार्कण्डेयपुराण आदि में वर्णित देवी चरित्र से सिद्ध है। भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः। ऐसे ही प्रत्येक अंग का अर्थ समझना चाहिए।
प्रश्नकर्ता सागर – ब्रह्मवैवर्तपुराण के कृष्णजन्मखण्ड में राधा जी के साथ श्रीकृष्ण के नग्न सम्भोगक्रीडा का वर्णन है –
तां च नग्नां समाश्लिष्य निममज्ज जले हरिः।
प्रकृत्याभ्यन्तरे क्रीडा सुतस्थौ च तया सह॥१३९॥
तां च नग्नां दर्शयित्वा गोपिका क्रीडया नताम्।
सस्मितां प्रेरयामास दूरतो यमुनाजले॥१४०॥
सा वेगेन समुत्थाय बलाज्जग्राह माधवम्।
गृहीत्वा मुरली कोपात्तोरयामास दूरतः॥१४१॥
गृहीत्वा पीतवसनं चकार तं दिगम्बरम्।
वनमालां च चिच्छेद ददौ तोयं पुनः पुनः॥१४२॥
आदि आदि … इसके लिए क्या स्पष्टीकरण दिया जाए गुरुजी ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – राधा और कृष्ण शाश्वत दम्पति हैं। दम्पति का सम्भोग करना कहाँ से अनुचित है ? इसमें क्या स्पष्टीकरण करना है ? प्रत्येक दम्पति सम्भोग करता ही है, और इसी प्रकार से करता है। इस मनुष्यलीला में भी ब्रह्मदेव के द्वारा उनका विवाह हुआ है, ऐसा पुराणों एवं संहिताओं में प्रमाण है।
प्रश्नकर्ता सागर – मगर मनुष्यों जैसा सम्भोग ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – मनुष्य का ही अवतार लिए हैं न। आप क्या चाहते हैं, मनुष्य बने हैं तो घोड़ा जैसा करें ?
प्रश्नकर्ता सागर – गोपियों के साथ भी ? जैसा कि अन्तिम श्लोक में है ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – गोपियों ने उन्हें पति रूप में प्राप्त करने के लिए कात्यायनी व्रत किया था। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः (श्रीमद्भागवत)।
प्रश्नकर्ता सागर – इसका मतलब सगुण ब्रह्म को कोई पति भी बना सकता है ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – हां। ईश्वर में अपने पति को देखें, पति में अपने ईश्वर को देखें तो सर्वभूतहृदय ईश्वर आपके पति हो जाएंगे। ये यथा मां प्रपद्यन्ते … (गीता)
प्रश्नकर्ता सागर – श्रीकृष्ण को ब्रह्मचारी योगेश्वर कहा जाता है तो दोनों गुणों को काम क्रीडा से जोड़ना उचित होगा ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – ब्रह्मचारी योगेश्वर शब्द आर्य समाजी कहते हैं ताकि वे कह सकें कि ईश्वर सगुणावतार नहीं लेता और 16108 रानियों की बात मिलावटी है। जो स्वयं ब्रह्म है, और समस्त जीव जिसके अंश हैं, उसका ब्रह्मचर्य रमण से खण्डित नहीं होता। उनकी काम क्रीड़ा में कामदेव का रोल नहीं – अवरुद्धसौरतः (श्रीमद्भागवत) और साथ ही, कहा कि जैसे कोई अपने ही प्रतिबिंब से खेले, वैसे ही।
प्रश्नकर्ता सागर – मगर श्रीकृष्ण तो नारायण ऋषि ही हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य और तपश्चर्या सिखाया। भगवद्गीता में भी संजय कहते हैं – एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः … देवी राधिका और गोपियाँ उनके प्रतिबिंब हैं ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – वो नारायण ऋषि बनकर जब ऋषिकुल में थे, धर्मपुत्र होकर, तब ब्रह्मचर्य रहे। अभी गृहस्थी के रूप में हैं न। राधा जीव नहीं हैं, गोपियाँ जीव हैं। जीव प्रतिबिंब है। राधा जी अभिन्न शक्ति हैं, जैसे दूध और उसकी सफेदी, सूर्य और उसकी प्रभा। हम तो मान ही रहे हैं कि योगेश्वर हैं, लेकिन ब्रह्म और सगुणावतार भी मानते हैं। समाजी केवल योगेश्वर मानते हैं, महापुरुष जैसा, ईश्वर नहीं। भगवान् ने गीता में स्वयं को धर्म से अविरुद्ध काम भी तो बताया है।
प्रश्नकर्ता सागर – क्या इसका मतलब ये हो सकता है कि एक जीवन्मुक्त के लिए भी ये नियम लागू होता है ? क्योंकि परमार्थ सत्य की दृष्टि से तो वो भी परब्रह्म हैं।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – भाई, पद्मपुराण देखो। जितने ये सब जीवन्मुक्त ऋषि थे न, वे सब ही गोपियों के रूप में बाद में आये। और ऋषि एवं दृष्ट मन्त्र में अभेद हैं। निग्रहागम कहते हैं – एताश्च श्रुतयः सर्वा व्रजे गोपकुमारिकाः।
प्रश्नकर्ता सागर – महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में श्रीकृष्ण कहते हैं – परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया। क्या इसका ये मतलब है कि श्रीकृष्ण (ईश्वर) को परब्रह्म पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ा गीतोपदेश देने के लिए ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – मया योगयुक्तेन तत् परं ब्रह्म हि कथितम्। मुझ योगयुक्त के द्वारा वह परब्रह्म कहा गया। नरलीला करते समय भगवान् नित्य ब्राह्मी स्थिति का प्रदर्शन नहीं करते, इसीलिए अलग से समझा दिया कि ये सामान्य नरलीला नहीं कर रहा हूँ।
प्रश्नकर्ता सागर – लेकिन उन्हें अगर अपने पूर्व जन्म की लीलाएं याद थीं तो उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि गीतोपदेश वापस सुनाना सम्भव नहीं है ?
अबुद्ध्वा यन्न गृह्णीथास्तन्मे सुमहदप्रियम्।
नूनमश्रद्दधानोऽसि दुर्मेधाश्चासि पाण्डव॥
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – क्योंकि अर्जुन ने उसकी कद्र नहीं की। उनकी बुद्धि उस ज्ञान को नित्य धारण न कर सकी, अश्रद्दधान और दुर्मेधासि कहा उन्हें इसीलिए। यथावत् वह ज्ञान नहीं कह पाऊंगा, ऐसा कहा। अर्जुन इस अनुगीता के समय मोहग्रस्त नहीं हैं, उनके हाथ पैर नहीं कांप रहे, वे क्षात्रधर्म से विमुख नहीं हो रहे, इसीलिए उस शब्दविन्यास में पुनः कहना सम्भव नहीं। परिस्थितियों और मानसिकता में भेद है। हम समझते हैं कि आप आपको इतना समय पर्याप्त दिया गया। परोक्ष से शास्त्राध्ययन नहीं होता है। यह परंपरा से गुरुमुख का विषय है।